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अनेकान्त 59 / 1-2
2. बाद में आचार्य अमृतचन्द्र (वि. 10वीं) ने ये षड्ावश्यक न मानकर मुनियों के षडावश्यकों को ही श्रावकों के लिए शक्ति अनुसार करणीय माना। उन्हें ये नये षडावश्यक स्वीकृत नहीं ।
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3. विक्रम की 10 शती में चामुण्डराय ने जिनसेन का अनुकरण किया और षडावश्यकों के धारक गृहस्थ को जातिक्षत्रिय और तीर्थक्षत्रिय ये दो भेद करके बताया ।
4. वि. की 11 वीं शती में सोमदवेसूरि ने षडावश्यक का स्वरूप जिनसेन की तर्ज पर ही निर्धारित किया, किन्तु 'वार्ता' नामक आवश्यक को उन्होंने नहीं लिया, बल्कि उसके स्थान पर 'गुरु उपासना' को महत्त्वपूर्ण शायद इसलिए नहीं माना क्योंकि अजीविका हेतु कार्य जीव करता ही है, उसे यदि इसका उपदेश न दिया जाय तब भी करेगा । सोमदेव सूरि ने जो आवश्यक निर्धारित कर दिये उसका अनुकरण आज तक प्रसिद्ध है।
5. आचार्य अमितगति (वि. 11 शती) ने बिना ज्ञान के षडावश्यकों को व्यर्थ माना और पहली बार पड़ावश्यक पालने वाले श्रावक का लक्षण निर्धारित किया । किन्तु ये अमृतचन्द्राचार्य की परम्परा से ही सहमत दिखे तथा जिनसेन और सोमदेव के गृहस्थों के षडावश्यक सम्बन्धी भेदों को नहीं माना। 'मुनियों के षडावश्यक ही गृहस्थों के लिए यथाशक्ति करणीय हैं' - आचार्य अमितगति ने इसे ही माना ।
6. पण्डित आशाधर (वि. 11 शती) ने जिनसेन, सोमदेव की परम्परा को पुनः स्थापित किया, किन्तु पांच ही कर्त्तव्य माने और वार्त्ता तथा गुरुउपासना इन दोनों को ही नहीं लिया ।
7. आचार्य सकलकीर्ति (वि. 15 शती) और पदमकृतश्रावकाचार ने पुनः मुनियों वाले षडावश्यक ही स्वीकृत किये ।
8. अभ्रदेव (वि. 16 शती) ने पूजापाठ और दान इन दो को ही ज्यादा समझा है ।