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मानत क्यों नहिं रे हे तो मानत क्यों नहिं रे है नर सीख सयानी। भयो अचेत मोह मद पो के, अपनी सुधि विसरानी ॥ दुखी अनादि कुबोध अव्रत में, फिर तिनसों रति ठानी। ज्ञान सुधा निजभाव न चाख्यो, पर परनति मति सानी ॥
मानत क्यों नहिं ............... ॥१॥ भव असारता लखे न क्यों जहँ, नृप है कृमि विटथानी। सधन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरि-से प्रानी ॥ देह एक गदगेह नेह इस, है बहु विपति निसानी। जड़ मलीन छिनछीन करमकृत, बंधन शिवसुख हानी॥
मानत क्यों नहिं .................. ॥२॥ चाह-ज्वलन ईंधन विधि-वन घन, आकुलता-कुल खानी। ज्ञानसुधा- सर शोषन रवि ये, विषय अमित मृतु दानी॥ यों लखि भव-तन-भोग विरचिकरि, निजहित सुनि जिनवानी। तज रुष-राग "दौल" अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी॥ मानत क्यों नहिं
- कविवर दौलतराम
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