SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 17. मानत क्यों नहिं रे हे तो मानत क्यों नहिं रे है नर सीख सयानी। भयो अचेत मोह मद पो के, अपनी सुधि विसरानी ॥ दुखी अनादि कुबोध अव्रत में, फिर तिनसों रति ठानी। ज्ञान सुधा निजभाव न चाख्यो, पर परनति मति सानी ॥ मानत क्यों नहिं ............... ॥१॥ भव असारता लखे न क्यों जहँ, नृप है कृमि विटथानी। सधन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरि-से प्रानी ॥ देह एक गदगेह नेह इस, है बहु विपति निसानी। जड़ मलीन छिनछीन करमकृत, बंधन शिवसुख हानी॥ मानत क्यों नहिं .................. ॥२॥ चाह-ज्वलन ईंधन विधि-वन घन, आकुलता-कुल खानी। ज्ञानसुधा- सर शोषन रवि ये, विषय अमित मृतु दानी॥ यों लखि भव-तन-भोग विरचिकरि, निजहित सुनि जिनवानी। तज रुष-राग "दौल" अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी॥ मानत क्यों नहिं - कविवर दौलतराम .. ॥३॥
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy