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अनेकान्त 59/1-2
महत्त्वपूर्ण माना है और कहा है कि जिस दाता ने अपनी कुलवती कन्या का दान दिया है समझो कि उसने कन्यादान लेने वाले को धर्म, अर्थ काम के साथ-साथ गृहस्थाश्रम ही दिया है क्योंकि गृहिणी (पत्नी) को ही तो घर कहते हैं
दात्रा येन सती कन्या दत्ता तेन गृहाश्रमः।
दत्तस्तस्मै त्रिवर्गेण गृहिण्येव गृहं यतः।। (2/170/207) इसके अलावा चारों प्रकार के दानो का विस्तृत वर्णन है। इसी प्रकार प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में दान, दाता के सात गुण तथा पात्र दान एवं कुपात्र दान के फल का वर्णन विस्तार से किया गया है। अन्य महत्त्वपूर्ण विमर्श के अलावा प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में धन के दान देने का कड़ा निषेध किया है। आज सर्वत्र पैसे के दान को ही दान समझा जाता है। जबकि चारों दानों में पैसे को गिनाया ही नहीं है। शायद इसलिए कहा है कि 'मनुष्यों को पुण्य उपार्जन करने के लिए धन का दान तो कभी देना ही नहीं चाहिए, क्योंकि धन का दान देना महामोह को उत्पन्न करने वाला है और ज्ञान-चारित्र आदि गुणों का घात करने वाला है। जो मनुष्य हिंसा मोह आदि को बढ़ाने वाले धन का दान करता है वह भारी पापों को इकट्ठा करता है
द्रव्यदानं न दातव्यं सुपुण्याय नरैः क्वचित् । महामोहकरं ज्ञानवृत्तादिगुणघातकम् ।। द्रव्यदानं प्रदत्ते यो हिंसामोहादिवर्द्धनम् । पापारम्भस्य मूलं सः श्रयेदुरितमुल्वणम् ।।
(2/375/154-155) गुणभूषणश्रावकाचार (2/451/39-49), धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार (2/487-492/147-200), उमास्वामि श्रावकाचार (3/171/ 224-241) में दाता का स्वरूप, देयवस्तु का वर्णन, चारों दानों का फल, पात्र-अपात्र के चिन्तवन इत्यादि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।