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अनेकान्त 59/1-2
श्रावकाचार सारोद्धार में दान देने वाले दाता के उत्तम-मध्यम और जघन्य ये तीन भेद बतलाते हुये कहा है कि जो गृहस्थ अपनी आय के चार भाग करके दो भाग तो कुटुम्ब के भरण-पोषण में, तीसरा भाग भविष्य के लिए संचय, तथा चौथा भाग धर्म के लिए त्यागता है, वह उत्तम (श्रेष्ठ) दाता है। जो अपनी आय का छह भाग करके दो भाग तो कुटुम्ब के लिए, तीन भाग कोश के लिए, छठा भाग दान देता है वह मध्यम दाता है। जो अपनी आय का दश भाग करके छह भाग परिवार में, तीन भाग सचय में, दशवां भाग धर्म कार्य में लगाता है वह जघन्य दाता है।(3/363/326-327)
पद्मन्दिपञ्चविंशतिका (3/430)में, देशव्रतोद्योतन (3/435-37) में, प्राकृत भावसंग्रह (3/453-459) में, संस्कृत भावसंग्रह (3/475-76) में रयणसार (3/479-80) में दान विषयक लगभग वही वर्णन हैं जो हम पहले कह आये हैं।
कुन्दकुन्दश्रावकाचार में दान के विषय में एक महत्त्वपूर्ण बात न्यायपूर्वक उपार्जन की मिली। वे कहते हैं-'बुद्धिमान मनुष्य को न्याय-परायण होकर धन के उपार्जन में प्रयत्न करना चाहिए। न्यायपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन ही अपाय (विनाश) रहित होता है, क्योंकि वह नवीन अर्थोपार्जन का सुन्दर उपाय है। न्याय से संचित किया धन यदि अल्प परिमाण में भी दान किया जाय, तो भी वह कल्याण के लिए होता है, किन्तु अन्याय से प्राप्त धन यदि विपुल परिमाण से भी दान किया जाय तो भी फल से रहित होता है'-(4/25-26/41-42)
सुधीरर्थार्जने यलं कुर्यान्न्यायपरायणः। न्याय एवानपायो यः सूपायः सम्पदां यतः।। दत्तः स्वल्पोऽपि भद्राय स्यादर्थो न्यायसञ्चितः। अन्यायाप्तः पुनर्दत्तः पुष्कलोऽपि फलोज्झितः।।