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अनेकान्त 59 / 1-2
के ग्रंथों की जानकारी प्राप्त होती है, किन्तु उत्तर भारत में तो प्राणावाय से सम्बन्धित एक भी ग्रंथ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर भारत में यह परम्परा बहुत पहले ही विलुप्त हो चुकी थी । किन्तु इतना अवश्य है कि ईसा की बारहवीं - तेरहवीं शताब्दी में कुछ मुनिजनों और जैन यतियों के द्वारा आयुर्वेदाधारित ग्रंथों की रचना की गई थी । किन्तु वे ग्रंथ प्राणावाय परम्पराधारित नहीं हो कर सामान्य आयुर्वेदाधारित हैं, क्योंकि उनमें प्राणावाय का उल्लेख कहीं भी किसी भी रूप में दृष्टिगत नहीं होता है । जिस प्रकार आयुर्वेद के अन्य सामान्य ग्रंथों में विभिन्न रोगों का निदान, लक्षण, चिकित्सा आदि का वर्णन प्राप्त होता है उसी प्रकार जैन यतियों के द्वारा रचित ग्रंथों में भी प्राप्त होता है । कुछ ग्रंथों में चिकित्सा योगों की बहुलता अवश्य मिलती है। इन ग्रंथों में कुछ तो मौलिक हैं और कुछ संग्रह ग्रंथ हैं। कुछ ग्रंथों पर यतियों द्वारा लिखी गई टीकाएं भी प्राप्त होती हैं जो संस्कृत अथवा देशी (प्रान्तीय) भाषा में है। कुछ ग्रंथ पद्यमय भाषानुवाद के रूप में हैं ।
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वर्तमान में उपलब्ध समग्र जैन वैद्यक वाङ्मय का अनुशीलन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल कल्याणकारक को छोड़कर अन्य समस्त वैद्यक ग्रंथों का प्रणयन मध्य युग में (ईशवीय 12वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक) किया गया । स्थान विशेष या प्रदेश की दृष्टि से देख जाय तो अधिकांश जैन वैद्यकग्रंथों का प्रणयन पश्चिमी भारत, जैसे राजस्थान, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र में विशेषतः हुआ। पश्चिमोत्तर भारत के पंजाब प्रान्त में भी जैन वैद्यक ग्रंथों की रचना किए जाने की जानकारी प्राप्त हुई है, किन्तु उसकी उपलब्धता नहीं होने से निश्चित रूप से कुछ कह पाना सम्भव नहीं हैं इसी प्रकार कर्नाटक में भी कन्नड़, प्राकृत और संस्कृत भाषा में रचित अनेक ग्रंथों के विभिन्न शास्त्र भण्डारों, मठों में रखे होने की जानकारी प्राप्त हुई है ।
जिन जैनाचार्यों द्वारा प्राणावाय या जैनायुर्वेद के ग्रंथों की रचना