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________________ अनेकान्त 59 / 3-4 इन आलेखों के पठनन- अनुशीलन से लेखक की बहुविज्ञता, श्रुतनिष्ठा एवं सूक्ष्मतत्त्वदृष्टि का सहज ही पता चल जाता है। पं. जी सा. ने जिन परिस्थितिययों में जैनागम के सूक्ष्मतत्त्वों पर निर्भय होकर साधिकार लेखनी चलाई है, उसकी मिशाल वे स्वयं हैं । कोई प्रलोभन, भय, जनमत या चतुर्विध संघ में से किसी का भी दबाव उन्हें विचलित नहीं कर सका। प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं विशेषतया प्राकृत भाषाओं के वे पारंगत अधीती विद्वान थे । अर्धमागधी में तो उनकी अनुपम पकड़ थी। प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन में उनकी दृष्टि मूल पर रहती थी तथा टीकाकारों के स्खलन को वे क्षयोपशमजन्य मानकर सर्वथा प्रमाण मानने के पक्षधर नहीं थे। किसी गाथा का अर्थ करते समय वे 'नामूलं लिख्यते किञ्चित्' के पक्षधर थे। एक आदर्श पण्डित में जैसी निर्भयता, निर्लोभता एवं त्यागवृत्ति होना चाहिए, वह पं. जी में कूट-कूट कर भरी थी। उनका व्यक्तित्व बड़ा अलौकिक था । वे जहाँ समाज से पैसा ग्रहण करना तो क्या, एक गिलास पानी पीना भी समीचीन नहीं समझते थे, वहाँ समागत विद्वान् या शोधार्थी जिज्ञासु के प्रति उनका वात्सल्य अद्वितीय था । 92 वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी, आगम की सेवा करने की उनकी ललक देखते ही बनती थी । दृष्टि कमजोर हो जाने की उन्हें बस यही चिन्ता सताती थी कि अब पढ़ना-लिखना कम हो गया है । अन्त तक यही कहते रहे कि यदि कोई अच्छा लिखने वाला मिल जाये तो मैं कुछ आगम की गुत्थियों पर आगमानुसार चर्चा करना चाहता हूँ। मुझे कष्ट है कि अपनी अल्पज्ञता, दूरवास एवं प्रमादवश मैं इस कार्य में सहयोगी न बन सका। हो सकता है कुछ गुत्थियों अब अनसुलझीं ही रह जायें । 3 सादगी की प्रतिमूर्ति, निर्भीक वक्ता, निष्कंप लेखनी के धनी सुलेखक तथा सतत सत्यान्वेषी पं. जी सा में हिमगिरि सी गुरुता, सागर सी गंभीरता एवं लौहार्गला सी दृढ़ता थी । आपकी विद्वज्जगत् में एक अलग पहिचान थी । लाग-लपेट एवं तिगड़मबाजी से दूर तथा
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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