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अनेकान्त 59/3-4
113 है तो ब्रह्मचर्य के समान उस स्थल पर पहुंचने के लिए अन्य कोई सीढी नहीं।
बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के अनुशीलन से यह भी परिज्ञात है कि यहां पर 'ब्रह्मचर्य' तीन अर्थो में व्यवहृत हुआ है। दीघ निकाय पोट्ठपाद में उसका अर्थ बौद्ध धर्म में निवास है जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्य का तीसरा अर्थ मैथुन विरमण है।
ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपायों को आगम साहित्य में 'गुप्तियाँ' और 'समाधि और स्थान' भी कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में उनके नौ भेद बताये है जो इस प्रकार हैं1. विविक्त शयनासन- ब्रह्मचारी ऐसे स्थान पर शयन आसन करे जो स्त्री,
पुरुष, नपुंसक से संयुक्त न हो। 2. स्त्री कथा परिहार- स्त्रियों की सौन्दर्य वार्ता, कथा वार्ता आदि की
चर्चा न करे। 3. निषद्यानुपसेवन- स्त्री के साथ एकासन पर न बैठे । उसके उठ जाने
पर भी एक मुहूर्त तक उस स्थान पर न बैठे। 4. स्त्री अंगोपांग अदर्शन- स्त्रियों के मनोहर अंग-उपांग न देखे, यदि
कदाचित् उस पर दृष्टि चली जाय तो पुनः हटा ले फिर उसका ध्यान
न करे। 5. कुडयान्तर शब्द श्रवणादिवर्जन- दीवार आदि की आड़ से स्त्रियों के
शब्द गीत रूप आदि न सुने, न देखे। 6. पूर्व भोग स्मरण वर्जन- पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे। 7. प्रणीत भोजन-त्याग- विकारोत्पादक गरिष्ठ भोजन न करे। 8. अतिपमात्र भोजन त्याग- रूखा-सूखा भोजन भी अधिक मात्रा में न
किया जाये। 9. विभूषण विवर्जन- शरीर की सजावट न करे।