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अनेकान्त 59 / 3-4
जारी रही । मैं बच्चों में शरीक था। साथ ही रहता था । अतः कथन में मिलावट जैसी कोई बात नहीं है। सच्चाई, ईमानदारी, स्वाभिमान एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए ऐसे कष्ट झेलने में मेरे मामा-मामी को अपूर्व आनन्द मिलता रहा है। इस प्रकार ये दोनों ही धन्य हैं।
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सन् 1962 ई० में देश की राजधानी दिल्ली आ गए। कुछ समय बाद मुनि विद्यानन्द जी के साथ रहे। उन्हीं के साथ-साथ पदयात्राएँ करते रहे । हिमालय भी
साथ गए । 'हिमालय के दिगम्बर मुनि' शीर्षक पुस्तक लिखी । इस पुस्तक की अन्त तक माँग बनी रही। आपके पाण्डित्य की छाप इस पुस्तक में उजागर हुई है। तदुपरान्त वे 'वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली' अनेकान्त के सम्पादक के रूप में आ गए। वीर सेवा मन्दिर एवं अनेकान्त के संस्थापक पंडित जुगलकिशोर जी मुख्तार 'और कमेटी ने संस्था के जो उद्देश्य निर्धारित किये थे, उन्हें पूरा करने में पंडित जी प्राणपण से जुट गए। बड़े पुत्र राजीव, छोटे प्रदीप कुमार, सबसे बड़ी पुत्री सुधा और मधु सबकी शिक्षा-दीक्षा विवाह सभी कार्य संपन्न हो गए। ये सभी सरकारी उपक्रमों में अच्छे पदों पर कार्यरत हो गए। सभी स्वावलम्बी पूर्णतः समर्थ हैं। सबकी सन्तानें हैं। सब अपने-अपने घर से जाकर माता-पिता की सेवा करना चाहते हैं । परन्तु वीर सेवा मन्दिर में रहते हुए पंडित जी संस्थान तथा जिनागम की सेवा में मनसा वाचा कर्मणा सजग भाव से समर्पित हैं। उनकी त्याग एवं निर्लोभ वृत्ति अनुगमनीय है। संस्थान के सदस्यों, पदाधिकारियों तथा समाज को इसका भरपूर लाभ मिल रहा है। सभी पंडित जी की भावनाओं का आदर करते हैं। वे अब 92 वर्ष की अवस्था पूरी करते हुए भी कुन्दकुन्दाचार्य के शास्त्रों को वाणी देते नजर आते हैं।
पं० पद्मचन्द्र शास्त्री की इतनी लम्बी जीवन-यात्रा का विवरण भी एक पूरी पुस्तक चाहता है। यहाँ विस्तारभय से मैंने पूरे तथ्य देने में भी लेखनी को नियन्त्रण में रखने का प्रयत्न किया है। लेकिन अनेकान्त के संदर्भ के साथ-साथ, वीर सेवा-मन्दिर से पंडित जी के जुड़ाव पर डॉ० सुरेशचन्द्र जैन द्वारा प्रस्तुत महत्त्वपूर्ण स्पष्टोक्ति को उद्धृत किये बिना 'जीवन-परिचय' की बात में अधूरापन रहना अवश्यम्भावी है। अन्ततः क्षमायाचनापूर्वक उसे जोड़ना मेरे लिए अपरिहार्य है। उन्होंने अनेकान्त के एक लेख में अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं; मेरी दृष्टि में वे तथ्यात्मक ही नहीं, यथार्थ भी हैं। देखे :
“उतार-चढ़ाव और आर्थिक एवं सामाजिक उदासीनता के चक्र में भी गौरव