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अनेकान्त 59/3-4 तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ से भी जुड़ गई और तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की मूर्तियों की प्रतीक फणावली तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों का भी एक अङ्ग बन गई। अतः तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की अनेक मूर्तियों पर आज भी यह फणावली देखी जा सकती है।
प्रायः ऐसा माना जाता है कि तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की मूर्तियों पर सप्तफणों से युक्त फणावली होती है और तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों पर पञ्चफणों से युक्त फणावली। किन्तु तथ्य कुछ और ही है। क्योंकि तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की मूर्तियों पर सप्त-फणावली से लेकर सहस्र-फणावली तक पाई जाती है, जबकि तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों पर पञ्च और सप्त-फणों से युक्त फणावली श्रवणबेलगोलस्थ चन्द्रगिरि पर विराजमान तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की मूर्ति पर सप्त-फणावली सुशोभित है।
इस फणावली की साम्यता के बावजूद काल की अपेक्षा तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ पूर्ववर्ती अर्थात् बड़े हैं और तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ परवर्ती अर्थात् छोटे हैं। इसीलिये काशी और उसके आसपास के क्षेत्रों में आज भी ये क्रमशः बड़े गुरु और छोटे गुरु के प्रतीक हैं।
वैदिक परम्परा में नाग का सम्बन्ध योगिराज श्रीकृष्ण से जुड़ा है, क्योंकि उन्होंने यमुना नदी वासी कालिया नाग का मान मर्दन किया था। वैदिक संस्कृति से जुड़े योगिराज श्रीकृष्ण के जन्म काल जन्माष्टमी एवं वैदिक संस्कृति में ही नाग पञ्चमी के दिन नाग पूजा होने के कारण भी वैदिक संस्कृति से नाग का निकट का सम्बन्ध है। इस प्रकार श्रमण
और वैदिक- दोनों संस्कृतियों से नाग का गहरा सम्बन्ध है। अतः नागपञ्चमी और योगिराज श्रीकृष्ण के जन्मकाल जन्माष्टमी के अवसर पर काशी और उसके आसपास के क्षेत्रों की गलियों में आज भी बच्चे नाग का चित्र बेचने के लिये जोर-जोर से आवाज लगाते हैं कि बड़े गरु का नाग लो भाई बड़े गुरु का नाग लो। छोटे गुरु का नाग लो भाई छोटे गुरु का नाग लो।
इस प्रकार लोक-जीवन में नाग के चित्रों को बेचने की जो प्रक्रिया