Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पहला अध्ययन
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भावार्थ - मातापितादि बाह्य संयोग और रागद्वेष कषायादि आभ्यंतर संयोग से रहित घरबार के बन्धनों से मुक्त, भिक्षा से निर्वाह करने वाले साधु का विनय प्रकट करूँगा । अतः सावधान हो कर अनुक्रम से मुझ से सुनो।
विवेचन इस गाथा में सूत्रकार त्यागी महात्माओं के विनय धर्म के वर्णन की प्रतिज्ञा करते हुए उसके श्रवण करने का भव्य पुरुषों को उपदेश करते हैं।
आगमकारों ने संयोग दो प्रकार का कहा है
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उत्तराध्ययन सूत्र
१. बाह्य और २. आभ्यंतर । मातापितादि इष्ट पदार्थों का संबंध बाह्य संयोग है और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की तीव्र इच्छा आभ्यंतर संयोग है। जिस व्यक्ति ने दोनों प्रकार के संयोगों को ज्ञान वैराग्यं द्वारा दृढ़तापूर्वक त्याग करके अनगार, भिक्षु पद को ग्रहण किया है उसी महापुरुष के विनय धर्म का यहाँ उल्लेख किया जाता है।
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अनगार
अगार अर्थात् घर, उससे जो रहित हो अर्थात् जिसने घर बार आदि का परित्याग कर दिया हो, उसे 'अनगार' कहते हैं ।
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भिक्षु - किसी भी गृहस्थ के लिए किसी तरह से भारभूत न होकर केवल शरीर यात्रा निर्वाहार्थ निर्दोष आहार, भिक्षा लेने वाले सत्पुरुष को 'भिक्षु' कहते हैं।,
विनीत शिष्य का लक्षण
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आणाणिद्देसकरे, गुरूणमुववायकारए ।
इंगियागारसंपण्णे, से विणीए त्ति वुच्चइ ॥ २ ॥
कठिन शब्दार्थ आणा
आज्ञा का, णिद्देसकरे - निर्देशानुसार करने वाला, गुरूणं
गुरुओं के, उववायकारए समीप रहने वाला, उनकी आज्ञा के अनुरूप कार्य करने वाला, इंगियागार - गुरुओं के इंगित और आकार को, संपण्णे - भलीभांति जानने वाला, विणीए - विनीत, त्ति - इस प्रकार से, वुच्चइ - कहा जाता है।
वह,
भावार्थ - गुरु आज्ञा को स्वीकार करने वाला, गुरुजनों के समीप रहने वाला, इंगित और से गुरु के भाव को समझने वाला साधु विनीत कहा जाता है।
आकार
विवेचन - इस गाथा में विनीत
विनयवान् का लक्षण बताते हुए आगमकार फरमाते हैं
ये लिए कार्य को करने
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