Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा०
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हुई है किंतु करणसाधन नहीं -करण अर्थ में प्रत्यय कर इनकी सिद्धि नहीं है । उन ज्ञानादि परिणामों को धारण करनेवाला आत्मा ही जानता है इसलिये ज्ञानरूप कहा जाता है, वही देखता है इसलिये दर्शनरूप कहा जाता है, वही आचरण करता है इसलिये चारित्ररूप कहा जाता है । इसप्रकार कर्ता में प्रत्यय करने पर एवंभूत नयकी अपेक्षा आत्मा ही ज्ञान दर्शन और चारित्र है । इसरीतिसे ज्ञान दर्शन को करण मानने पर जो वादीने यह दोष दिया था कि "कर्ता और करण पदार्थ सर्वथा भिन्न होते हैं । यदि ज्ञान और दर्शनको करण और आत्माको कर्ता माना जायगा तो आत्मा और ज्ञान दर्शनादिमें सर्वथा भेद मानना पडेगा" वह दोष दूर होगया । यदि यहां पर यह कहा जाय कि
लक्षणाभाव इति चेन्न बाहुलकात् ॥ २७ ॥ -
युद्ध प्रत्यय भाव और कर्म में होता है कर्ता में नहीं, फिर यहां कर्ता में युद्ध प्रत्यय कहना अयुक्त है ? सो ठीक नहीं । 'युड्या बहुल? युट् और कृत् प्रत्यय बहुलता से होते हैं) व्याकरण के इस सूत्र से कर्ता में भी युद्ध और णित्र प्रत्यय होते हैं एवं कर्ता में युद्ध प्रत्यय करनेसे ज्ञान और दर्शन और मित्र प्रत्यय करने से चारित्र शब्दकी सिद्धि हो जाती है । सूत्रमें जो बहुल पद है उसका तात्पर्य यह है कि जिन प्रत्ययों का जहां विधान किया गया है उससे अन्यत्र भी वे प्रत्यय होते हैं । कृत् प्रत्ययों का विधान भाव और कर्ममें है वे करण आदि में भी हो जाते हैं जिसतरह जिससे स्नान किया जाय वह स्नानीय चूर्ण ( साबुन आदि) कहा जाता है इहांपर करण में प्रत्यय है । जिसके लिये दे वह दानीय- अतिथि कहा जाता है यहां
१ पहिले अर्थ लिखा जा चुका है । २ वर्तमानक्रिया परिणाम परिणत पदार्थ की विवक्षा रखनेवाला एवंभूतनय कहलाता है । जिससमय पढ़ रहा है उसीसमय छात्र है, पढाते समय वही पाठक कहा जाता है ।
भाषा