Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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विधि का विस्तार से विवरण किया है। जिनयात्रा को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिन के निमित्त (लक्ष्य) करके जो महोत्सव किया जाता है, वह जिनयात्रा है। आचार्य हरिभद्र ने, महोत्सव में यथाशक्ति दान, तप, शरीर-शोभा, उचित व मधुर गीत-वाद्य, स्तुति, नृत्य आदि करना चाहिए- ऐसा निर्देश दिया है, साथ ही यह भी बताया है कि जिनयात्रा के महोत्सव में वहाँ राजा या जो भी अधिकारी हो, उसकी आज्ञा लें- यह आगमसम्मत है। इस प्रकार आज्ञा लेकर कार्य करने पर उस देश में विचरण करने वाले साधुओं को तीसरे महाव्रत का निरतिचार पालन होता है, शुभ कार्य में शत्रुओं की ओर से कोई उपद्रव की सम्भावना नहीं रहती है। राजा द्वारा सम्मान प्राप्त होने के कारण उन साधओं का सभी जन आदर-सम्मान के साथ दर्शन-श्रवण करते हैं। साधु भी राजा के पास जाकर उनकी इस प्रकार प्रशंसा करे – 'आपने जिन-महोत्सव में सहयोगी बनकर अपने मनुष्य-भव को सफल किया है। मनुष्य तो बहुत हैं, पर आपको पुण्य की बदौलत राजा बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसका कारण धर्म ही है। धर्म से ही आपको सारी सम्पदाएँ उपलब्ध हुई हैं, अतः आप सदैव धर्म-कार्य में सहयोगी बनते रहें।' साधु के मुख से इस प्रकार प्रशंसा सुनकर राजा महोत्सव आदि में आगे के लिए सदा जीव-हिंसा आदि बन्द करवा सकता है। जिनयात्रा के प्रसंग पर संघ को धन आदि देकर भी हिंसा आदि अनर्थ कार्यों को छुड़वाना चाहिए। यहाँ आचार्य हरिभद्र ने यह भी संकेत किया है कि जो आचार्य या श्रावक राजा आदि से निवेदन करके हिंसादि कार्य छुड़वाकर जिन-शासन की प्रभावना का कार्य करवाते हैं, उनका भी उचित सम्मान करना चाहिए, ताकि शुभकार्य की अनुमोदना से कर्मों की निर्जरा हो।
आचार्य हरिभद्र ने कल्याणक दिनों के विषय में विशेष चर्चा करते हुए कहा है कि परमात्मा के पाँच कल्याण होते हैं, अतः इन कल्याणकों के दिन जिन-शोभायात्रा निकालने से अपना भी ‘कल्याण' होता है व लोक में तीर्थंकर का सम्मान होता है, पूर्वजों की परम्परा का पालन होता है, जिनमहोत्सव की लोक में प्रसिद्धि फैलती है, जिनशासन की महिमा बढ़ती है, जिनयात्रा में भाग लेने वालों के परिणाम शुद्ध होते हैं, इसलिए जिनयात्रा नगर में निकाली जाना चाहिए।
इसे हरिभद्र ने उत्कृष्ट क्रिया बताया और कहा कि यह महोत्सव तो इन्द्रादि भी करते हैं। यदि शास्त्र-वचन एवं पूर्वजों की परम्परा का पालन नहीं करते हैं, तो उनका अपमान होता है, अतः महापुरुषों से जिनयात्रा-विधि समझकर जिनयात्रा का महोत्सव अवश्य करना चाहिए। दशम पंचाशक (उपासक-प्रतिमा-विधि)
प्रस्तुत पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने उपासक प्रतिमा विधि का प्रतिपादन किया है। आचार्य भद्रबाहु द्वारा उद्धृत दशाश्रुतस्कंध के आधार पर आचार्य हरिभद्र ने निम्न ग्यारह प्रतिमाओं पर विवेचन किया है
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