Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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सम्यग्दर्शन के बीज हैं, अतः यह ध्यान रहे कि जिनभवन-निर्माण में कम-से-कम दोष लगे। प्रयत्न तो ऐसा ही होना चाहिए कि दोष लगे ही नहीं।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस सम्बन्ध में पाँच द्वारों का निर्देश किया है- (1) भूमिशुद्धि-द्वार (2) दलविशुद्धि-द्वार (3) मृतकानतिसन्धान-द्वार (4) स्वाशयवृद्धि-द्वार और (5) यतना-द्वार ।
इन शुद्धियों का विवेक रखने पर इस निर्माण कार्य में हिंसा होने पर भी वह पापरूप नहीं होती, क्योंकि परमार्थ से वह अहिंसा ही है। परमार्थ से इसे अहिंसा मानने में महत्वपूर्ण बात यह बताई गई है कि जिन भवन आदि बनाने में जो अल्प हिंसा है, वह अल्प हिंसा अधिक हिंसा से बचाने में सहयोगी बनती है, इस कारण इसे परमार्थ अहिंसा का रूप दिया है, अतः श्रावकगण को मोक्ष न पाने तक सद्गति में कल्याण की परम्परा को सतत बनाए रखने के लिए जिन-मन्दिर का निर्माण करवाते रहना चाहिए। अष्टम पंचाशकजिनबिम्ब-प्रतिष्ठा-विधि
प्रस्तुत पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने जिनप्रतिष्ठा-विधि का विवरण किया है। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत विधि को दो भागों में विभक्त किया है
1. जिनबिम्ब-निर्माण-विधि 2. जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा-विधि
साधक, गुरु के द्वारा यह जानता है कि तीर्थंकर परमात्मा अतिशय गुणसम्पन्न हैं और उनके दर्शन कल्याणकारी हैं, अतः जिनबिम्ब बनवाना श्रावकों का कर्त्तव्य है और यही मनुष्य-जीवन की सफलता है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जिनबिम्ब का निर्माण चारित्रशील शिल्पी से ही करवाना चाहिए तथा उसे पर्याप्त पारिश्रमिक देना चाहिए। उन्होंने विकल्प में यह भी निर्देश दिया कि यदि सुशील शिल्पी नहीं मिले और दुःशील शिल्पी से जिनबिंब-निर्माण का कार्य करवाना पड़े, तो उसके लिए पारिश्रमिक पूर्व में ही निश्चित कर लेना चाहिए, साथ ही यह भी निश्चित कर लेना चाहिए कि राशि का भुगतान अंशतः दिया जाएगा, जिससे वह शिल्पी केवल जीवनयोपयोगी वस्तु ही खरीद सकेगा, दुर्व्यसन में उसका उपयोग नहीं करेगा, अथवा यह निश्चित कर लिया जाए कि उसे पारिश्रमिक-राशि खाद्य-सामग्री या वस्त्रादि के रूप में ही मिलेगी। यदि मूल्य निश्चित नहीं करते हैं, या एक साथ दे देते हैं, तो देवद्रव्य के भक्षण का दोष होगा और परिणाम में अनेक दारूण दुःखों को भोगना पड़ेगा, अतः इस परिणाम को जानकर, जो कार्य परिणामस्वरूप सबके लिए दुःख का कारण हो, उसे नहीं करना चाहिए। जिनाज्ञा के अनुसार कार्य करने पर भी विपरीत घटित हो जाए, तो फिर वह श्रावक दोषी नहीं है, क्योंकि वह आज्ञा का आराधक
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