Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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बताए गए हैं। द्रव्य-स्तवन में उन्होंने शास्त्रोक्त जिनमन्दिर- निर्माण, जिनपूजा, जिनप्रतिमा-प्रतिष्ठा और तीर्थों की यात्रा को रखा है तथा भावस्तव में मन, वचन और काया से विरक्त हो वीतराग की स्तुति आदि को लिया है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि द्रव्य-स्तवना के बिना भाव-स्तवना भी असम्भव है, अतः द्रव्य से भाव की विशुद्धि है तथा भावस्तव के निमित्त के साथ आप्त पुरुषों के प्रति आदर-भाव की जो अभिव्यक्ति है, वह भावस्तव का प्रतीक है।
___आचार्य हरिभद्र ने द्रव्यस्तव के भी दो भेद कहे हैं- प्रधान द्रव्यस्तव व अप्रधान द्रव्यस्तव। प्रधान द्रव्यस्तव भावस्तव का मूल है तथा अप्रधान द्रव्यस्तव का भावस्तव से कोई संबंध नहीं है। गृहस्थ व साधु के द्रव्य-कार्यों के आधार पर शंका होने से द्रव्यस्तव व भावस्तव के स्तर को आंकते हुए कहा है कि साधु के सेवा आदि कार्य को द्रव्यस्तव में नहीं मानने का कारण यह है कि वे निर्दोष-निरवद्य हैं, लेकिन जिनभवन आदि में आंशिक आरम्भ है, अतः इन्हें द्रव्यस्तव में लिया गया है। द्रव्यस्तव भावस्तव में परम उपयोगी है, पर अल्प-बहुत्व का अन्तर है। द्रव्यस्तव औषध लेकर पथ्य-परहेज करने जैसा है तथा भावस्तव केवल पथ्य-परहेज का पालन करने जैसा है, जिसमें औषध की कोई आवश्यकता नहीं है। यह अन्तर होने पर भी दोनों का एक-दूसरे से सम्बन्ध है, क्योंकि द्रव्यस्तव का अधिकारी गृहस्थ व भावस्तव का अधिकारी साधु है, परन्तु गौण रूप से गृहस्थ भी भावस्तव करता है व साधु भी गौण रूप से द्रव्यस्तव करता है।
इस प्रकार द्रव्यस्तव और भावस्तव भिन्न होते हुए भी अभिन्न हैं, इस कारण साधुओं और श्रावकों को द्रव्यस्तव व भावस्तव- दोनों करने का विधान आगमों में बताया गया है। इसे ही आचार्य ने इस प्रकरण में विस्तृत व्याख्या करते हुए द्रव्यस्तव व भावस्तव का विश्लेषण किया है। सप्तम पंचाशक
प्रस्तुत पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने 'जिनभवन-निर्माण' की चर्चा की है। उन्होंने इस प्रकरण में बताया कि जिन-निर्माण के लिए निर्माता में कौन-कौनसी योग्यतायें अवश्य होना चाहिए।
जिनभवन-निर्माता की योग्यताओं को अंकित करते हुए कहा गया है कि जिनभवन-निर्माण करने का अधिकार उसी को है, जिसमें निम्न योग्यताएँ हैं
गृहस्थ हो, शुभ-परिणाम हो, जिन-धर्म पर विश्वास हो, सम्पन्न हो, कुलीन हो, धैर्यवान् हो, उदार हो, बुद्धिमान् हो, धर्मानुरागी हो, देव-गुरु धर्मोपासक हो, शुश्रुषा आदि आठ गुणों से युक्त हो तथा शास्त्रोक्त जिनभवन-निर्माण-विधि का ज्ञाता हो। निर्माता की योग्यता को यहाँ प्रतिपादित करने का तात्पर्य है कि यदि उक्त योग्यता वाला व्यक्ति जिनभवन का निर्माण करवाता है, तो जिनाज्ञा का भंग नहीं होता है तथा निर्माण-कार्य को देखकर कई गुणानुरागी मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। ये शुभभाव भी
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