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पचनन्दिपश्चविंशतिका । न करोगे तबतक तुम्हारा यम नियम करना भी व्यर्थ है तथा तुम्हारा क्लेश सहना भी विना प्रयोजनका है और तुम्हारे, नाना प्रकारके, किये हुवे तप भी व्यर्थ हैं ।
भावार्थ-जबतक ज्ञानानन्दस्वरूप शुद्यात्माका अनुभव न कियाजायगा तथा मोहको कृष न किया जायगा तबतक वाघमें तुम चाहे जितना यम नियम उपवास तप आदि करो सब तुम्हारे व्यर्थ है इसलिये सब से प्रथम तुमको ज्ञानानन्दस्वरूप शुद्धात्माका अनुभव करना चाहिये पीछे इनबातोंपर ध्यान देना चाहिये ॥५०॥ ॥और भी आचार्य मुनिधर्भके खरूपका बर्णन करते है।
वंशस्थ । जुगुप्सते संसृतिमत्र मायया तितिक्षते प्राप्तपरीषहानपि ।
नचेन्मुनिर्दुष्टकषायनिग्रहाश्चिकित्सति स्वान्तमघपशान्तये ॥५१ ॥ अर्थः-ओ मुनि सर्वथा आत्माके अहित करनेवाले दुष्ट कषायोंको जीतकर पापोंके नाशके लिये अपने चित्तको स्वस्थ बनाना नहीं चाहता वह मुनि समस्तलोकके सामने कपट से संसारकी निन्दा करता है तथा कपट से ही वह क्षुधा तृषा आदि वाईस परीषहों को सहन करता है।
भावार्थ:-संसार का त्याग तथा परीषदों को जीतना उसी समय कार्यकारी मानाजाता है जबकि कषायों का नाश होवे तथा चित्त खस्थ रहै किन्तु जिन मुनियों का चित्त कषायके नाश होने से शड ही नहीं हवा हैं वे मुनि क्या तो संसार का त्याग कर सक्ते हैं ? तथा क्या वे परीषहों को ही सहन कर सक्त हैं; यदि ये संसारकी निन्दा करै तथा परीषोंका सहन भी करै तो उनका वह सर्वकार्य ढोंगसे किया हुवा ही समझना चाहिये। इसलिये मुनियोंको चाहिये कि वे प्रथम कषायमादिको नाशकर चित्तको शुद्ध बना लेवे पीछे संसारकी निन्दा तथा परीषहोंका सहन करै ।। ५१ ॥
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