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पचनन्दिपश्चविंशतिका ।
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और भी आचार्य मुनिधर्मकी महिमाका वर्णन करते हैं ।
शिखरिणी ।
प्रबोधो नीरन्ध्रं प्रवहणममन्दं पृथुतपः सुवायुर्यैः प्राप्तो गुरुगणसहायाः प्रणयिनः । कियन्मात्रस्तेषां भवजलधिरेषोऽस्य च परः कियद्दूरे पारः स्फुरति महतामुद्यमवताम् ॥ ४९ ॥ अर्थः-जिन मुनियोंके पास छिद्ररहित सम्यग्ज्ञानरूपी जहाज मोजूद है, तथा अमन्द विस्तीर्ण तपरूपी पवनभी जिनके पास है तथा स्नेही बड़े २ गुरूभी जिनके सहायी हैं उन उद्यमी महात्मा मुनियोंकेलिये यह संसाररूपी समुद्र कुछ भी नहीं है तथा इस संसाररूपीसमुद्रका पारभी उनके समीपमें ही है ॥
भावार्थ:- जिस मनुष्यके पास छिद्ररहित जहाज तथा जहाजकेलिये योग्य पवन तथा चतुर खेवटिया होते हैं वह मनुष्य वातकी वातमें समुद्रकी चौरसको तय करलेता है उसीप्रकार जो मुनि सम्यग्ज्ञानके धारक हैं तथा विस्तीर्ण तपके करनेवाले हैं. और जिनके बड़े २ गुरूभी सहायी हैं वे मुनि शीघ्रही संसारसमुद्रसे तरजाते हैं तथा मोक्ष उनके सर्वथा समीपमें आजाती हैं ॥ ४९ ॥
आचार्य मुनियोंको शिक्षा देते हैं।
वसंततिलका ।
अभ्यस्यतान्तरदृशं किमु लोकभक्त्या मोहं कृशीकुरुत किं वपुषा कृशेन । एतद्द्वयं यदि न किं वहुभिर्नियोगेः क्रुशैश्च किं किमपरैः प्रचुरैस्तपोभिः ॥ ५० ॥
अर्थः- भो मुनिगण ? आनन्द स्वरूप शुद्धात्माका अनुभव करो लोकके रिझावनेके लिये प्रयत्न मत करो तथा मोहको कृष करो शरीरके कृषकरने में कुछ भी नहीं रक्खा है क्योंकि जब तक तुम इन दो बातोंको
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