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मूलाचार
ग्रामादिषु पतितादि अल्पप्रभृति परेण संगृहीतं । न आदानं परद्रव्यं अदत्तपरिवर्जनं तत् तु ॥ ७॥
अर्थ — ग्राम आदिक में पड़ा हुआ, भूला हुआ, रक्खा हुआ इत्यादिरूप अल्प भी स्थूल सूक्ष्म वस्तु तथा दूसरेकर इकट्ठा किया हुआ ऐसे परद्रव्यको ग्रहण नहीं करना ( नहीं लेना ) वह अदतत्याग अर्थात् अचौर्यमहाव्रत है ॥ ७ ॥
आगे चौथे ब्रह्मचर्यव्रतका स्वरूप कहते हैं;मादुसुदाभगिणीविय दट्ठणित्थित्तियं च पडिरूवं । इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्जं हवे बंभं ॥ ८ ॥
मातृसुताभगिनीरिव दृष्ट्वा स्त्रीत्रिकं च प्रतिरूपम् । स्त्रीकथादिनिवृत्तिः त्रिलोकपूज्यं भवेत् ब्रह्म ॥ ८ ॥ अर्थ – वृद्धा बाला यौवनवाली स्त्रियोंको अथवा उनकी तस्वीरों को देखकर उनको माता पुत्री वहिन समान समझ स्त्रीसंबंधी कथा, कोमल वचन, स्पर्श, रूपका देखना, इत्यादिकमें जो अनुरागका छोड़ना है वह देवअसुरमनुष्य तीनलोकोंकर पूज्य ब्रह्मचर्यमहाव्रत है ॥ ८ ॥
अब परिग्रहत्याग महाव्रतका स्वरूप कहते हैं:जीवणिबद्धा बद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव । तेसिं सक्कच्चाओ इयरम्हि य णिम्मओऽसंगो ॥ ९ ॥ जीवनिबद्धा बद्धाः परिग्रहा जीवसंभवाचैव ।
तेषां शक्यत्यागः इतरस्मिन् च निर्ममोऽसंगः ॥ ९ ॥ अर्थ — जीवके आश्रित अंतरंगपरिग्रह तथा चेतन परिग्रह