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जैन संस्कृत महाकाव्य
स्वीकार कर
- प्रशस्तिगान शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है | महाकविकृत कुमारसम्भव के तृतीय सर्ग में इन्द्र तथा वसन्त का मनोहर संवाद है, जिसमें इन्द्र वसन्त को अपने प्रिय मित्र काम के सहयोग से भगवान् शंकर की समाधि भंग करने के लिये उत्तेजित करता है । जैनकुमारसम्भव के तृतीय सर्ग में इन्द्र तथा ऋषभ के वार्तालाप की योजना की गयी है, जिसका उद्देश्य काव्य नायक को वैवाहिक जीवन के दाम्पत्य धर्म के प्रवर्तन के लिये प्रेरित करना है" । जयशेखर का यह संवाद कालिदास के समानान्तर संवाद की माधुरी से वंचित होता हुआ भी कवित्व की दृष्टि से नगण्य नहीं है । इसी सर्ग में सुमंगला तथा सुनन्दा की और चतुर्थ सर्ग में ऋषभ की विवाहपूर्व सज्जा का विस्तृत वर्णन कालिदास कृत पार्वती एवं शिव के प्राक् - विवाह अलंकरण पर आधारित है" । कालिदास का संक्षिप्त वर्णन यथार्थता तथा मार्मिकता से ओतप्रोत है । जैनकुमारसम्भव में वरवधू की सज्जा का चित्रण - विस्तार के कारण नखशिख सौन्दर्य की सीमा तक पहुँच गया है। कालिदास की अपेक्षा वह अलंकृत भी है और कृत्रिम भी, यद्यपि दोनों में कहीं-कहीं भावसाम्य दृष्टिगोचर होता है" ।
जैन कुमारसम्भव में ऋषम विवाह का वर्णन बहुलांश में शंकर - विवाह की अनुकृति है । ऋषभ का विवाह देवराज इन्द्र के प्रयत्न तथा व्यवहारनिपुणता का परिणाम है । वे प्रकारान्तर से उस कृत्य की पूर्ति करते हैं, जिसका सम्पादन सप्तर्षियों द्वारा ओषधिप्रस्थ जाकर किया जाता है २७ । दोनों काव्यों में अन्य देवी पात्रों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है । कालिदास के समान जयशेखर ने विवाह के सन्दर्भ में तत्कालीन वैवाहिक विधियों का निरूपण किया है । कालिदास ने अपनी -शैली के अनुरूप केवल ग्यारह पद्यों में प्रासंगिक आचारों का समाहार किया है जबकि जयशेखर ने समकालीन समग्र वैवाहिक परम्पराओं का सूक्ष्म निरूपण करने की आतुरता के कारण इस प्रसंग का अधिक विस्तार कर दिया है । पाणिग्रहण की चरम विधि के रूप में हिमालय के पुरोहित ने केवल एक पद्य में पार्वती को पति के साथ धर्माचरण का उपदेश दिया है । जैनकुमारसम्भव में वर-वधू को क्रमशः इन्द्र तथा शची अलग-अलग शिक्षा देते हैं, जो विस्तृत होती हुई भी रोचकता तथा उदात्त
२४. कुमारसम्भव, ३.१-१३; जैनकुमारसम्भव, ३.१-३६
२५. कुमारसम्भव, ७.७-२४; जैनकुमारसम्भव, ३.६०-८१; ४.१४-३२
२६. कुमारसम्भव, ७.१५, ७.६; ७.११, ७.२१; जैनकुमारसम्भव ३.६४, ४.१५,
४.१७, ४.३१
२७. कुमारसम्भव, ६.७८-७९