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वेंसठ
चारित्र चक्रवर्ती- एक अध्ययन नोट्स के आधार पर लिखा गया है। इस चारित्र ग्रंथ के लेखन में पं. सुमेरुचंद्रजी दिवाकर को पुरुषार्थ की अपेक्षा दैव ही अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ॥१ ____ आचार्य श्री उन्हीं युग श्रेष्ठ बिरले पुरुषों में से एक थे जिनके पास जीने को सिर्फ कर्मायु नहीं होती, अपितु श्रुतायु भी होती है। वह श्रुतायु, जो उन्हें कालातीत बनाकर सतत जीवित रखती है गुण ग्राह्यों के मन व मानस में।
जिन व जितने प्रमाणों में वे अपने अनुयाइयों/अनुगामियों के भीतर जीवित रहते हैं, उन व उतने ही प्रमाणों में वे जीवित रहते हैं अपने प्रतिपक्षियों/प्रतिद्वंदियों/ आलोचकों के भी मन व मानस में, क्योंकि इन्हें विस्मृत कर प्रतिपक्षियों/प्रतिद्वन्द्वियों के पास अपने इष्ट की सिद्धि का कोई उपाय ही नहीं है। अतः आचार्य शांतिसागर जीवित हैं, अपने अनुयाइयों के चित्त में भी और अपने आलोचकों के चित्त में भी॥ ___यहाँ बहुमूल्य प्रश्न यह है कि कोई किसी का अनुयायी अथवा प्रशंसक होता भी है, तो क्यों होता है ? ऐसा अंततः क्या हो जाता है कि कोई किसी का अनुयायी अथवा प्रशंसक होने को बाध्य हो जाता है ?
इस प्रश्न का उत्तर मनोवैज्ञानिकों ने दिया है। प्रत्येक व्यक्ति अपने चित्त में निश्चित आदर्शों का निर्धारण किये रहता है। उन आदर्शों को जब स्वयं में नहीं पाता, तब अन्यों में टोहता है। जिनमें वे आदर्श पाये जाते हैं अथवा जो इन आदर्शों के अनुरूप होते हैं, वे उस व्यक्ति के इष्ट हो जाते हैं। इस विषय में जो तथ्य सर्व प्रथम देखा जाता है, वह यह कि वह व्यक्ति संत की परिभाषा के अंतर्गत आता है या नहीं? संत की परिभाषा के अंतर्गत आते हो लोगों का उसकी ओर देखने का नजरिया बदल जाता है। यह नजरिया अनुयायी होने का प्रारंभ है। किंतु इतना ही पर्याप्त नहीं है, अनुयायी इससे अधिक की अपेक्षा करता है।
वह अधिक ही उस संत को अन्यों से पृथक कर श्रुतायु देता है।
यहाँ स्वाभिवक प्रश्न किया जा सकता है कि यह अधिक क्या है अथवा क्या इस अधिक ने ही आचार्य श्री को चक्रवर्ती बना दिया था।
जी हाँ !! इस अधिक ने ही आचार्य श्री को आचार्य श्री से चक्रवर्ती बना दिया था। जैसे चक्रवर्ती ६ खण्ड को अपने अधीन करता है, ठीक वैसे ही चारित्र चक्रवर्ती ने अपने विशिष्ट चारित्र के बल से ६ भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्तों/मानसों पर अपने रत्नत्रयमय जीवन का साम्राज्य स्थापित कर दिया था। प्रभावित होने के ६ प्रकार के कारणों के
१. इस विषय में लेखक महोदय स्वयं ही लिखते हैं कि (चारित्र चक्रवर्ती, संस्करण १९६७, प्रस्तावना, पृष्ठ ६)-"...आचार्य श्री के जीवन की घटनाओं का अल्पपरिचय हमें सचिन्त बनाता था।..... परमात्मा का नाम-स्मरण और आचार्य श्री के चरणों को प्रणाम करते हुए मैं जब लिखने बैठता था तो विपुल
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