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प्रविशन्ति यथा नद्यः समुद्रमृजुवक्रगाः । सर्वे धर्मा अहिंसायां प्रविशन्ति तथा दृढम् ॥
(प.पु. 3/31/37)
जैसे टेढ़ी-मेढ़ी चलने वाली सभी नदियां समुद्र में प्रविष्ट हो जाती हैं, वैसे ही सभी धर्म 'अहिंसा' में समाविष्ट हो जाते हैं - यह निश्चित है।
{44}
अहिंसा परमो धर्म:, तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानम्, अहिंसा परमं तपः ॥
(म.भा. 13/116/28 ) अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है और अहिंसा परम तपस्या है।
{45}
तस्मात् प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता । अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता ।
(म.भा.12/265/6)
विज्ञ पुरुष को उचित है कि वह वैदिक प्रमाण से धर्म के सूक्ष्म स्वरूप का निर्णय करे । सम्पूर्ण भूतों के लिये जिन धर्मों का विधान किया गया है, उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गयी है।
[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 12
{46}
सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम् । सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया ॥
(म.भा.13/116/30)
सम्पूर्ण यज्ञों में जो दान किया जाता है, समस्त तीर्थों में जो गोता लगाया जाता है
तथा सम्पूर्ण दानों का जो फल है - यह सब मिल कर भी अहिंसा के बराबर नहीं हो सकते।
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