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{649} न धर्मस्तु दयातुल्यो, न ज्योतिश्चक्षुषा समम्॥
___ (स्कं.पु. वैष्णव/वेंकटा./17/19; ना. पु. 2/22/18) न दया के बराबर कोई धर्म है और न ही आंख के समान कोई ज्योति है।
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दया सुर्वसुखैषित्वम्।
(म.भा. 3/313/90) सब के सुख की इच्छा रखना ही उत्तम दया है।
16511 न दयासदृशो धर्मो न दयासदृशं तपः। न दयासदृशं दानं न दयासदृशः सखा॥
(प.पु. 5/102/15) दया के समान न कोई धर्म है, न कोई तप है, न कोई दान और और न कोई मित्र है।
{652} सर्वभूतदयायुक्तः पूज्यमानोऽमरैर्द्विजः। सर्वभोगान्वितेनासौ विमानेन प्रयाति च॥
(ना. पु. 1/31/27) जो सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखता है, वह (मृत्यु के बाद) देवताओं से पूजित होता हुआ समस्त भोग- सुविधाओं से पूर्ण देव-विमान द्वारा (परलोक में) जाता है।
{653} न ह्यतः सदृशं किंचिदिह लोके परत्र च। यत् सर्वेष्विह भूतेषु दया कौरवनन्दन॥ न भयं विद्यते जातु नरस्येह दयावतः। दयावतामिमे लोकाः परे चापि तपस्विनाम्॥
(म.भा.13/116/10-11) इस लोक और परलोक में इसके समान दूसरा कोई पुण्यकार्य नहीं है कि इस जगत् में * का समस्त प्राणियों पर दया की जाय।इस जगत् में दयालु मनुष्य को कभी भय का सामना नहीं करना है # पड़ता। दयालु और तपस्वी पुरुषों के लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद होते हैं। . 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那
अहिंसा कोश/185]