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{871} सर्वं ब्रह्ममयं पश्येत्स संन्यासीति कीर्तितः। सर्वत्र समबुद्धिश्च हिंसामायाविवर्जितः॥ क्रोधाहंकाररहितः स संन्यासीति कीर्तितः।
(ब्र.वै.पु. 2/36/123-124) सब को ब्रह्ममय देखे, उसे 'संन्यासी' कहते हैं। सर्वत्र समान बुद्धि रखने वाला, F हिंसा व माया से रहित तथा क्रोध व अहंकार से शून्य हो, उसे 'संन्यासी' कहा जाता है।
{872} सर्वभूतहितो मैत्रः समलोष्टाश्मकाञ्चनः। ध्यानयोगरतो नित्यं भिक्षुर्याति परां गतिम्।
(शं. स्मृ. 7/8) संन्यासाश्रमी यति प्राणी-मात्र से प्रेम करे और सुवर्ण तथा मिट्टी के ढेले को समान भाव से देखे। सदा ध्यान-योग में संलग्न रहने वाला ही यति परमगति को प्राप्त होता है।
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{873}
जरायुजाण्डजादीनां वांग्मनःकायकर्मभिः। युक्तः कुर्वीत न द्रोहं सर्वसङ्गांश्च वर्जयेत्॥
(वि.पु. 3/9/27) भिक्षु को चाहिए कि वह निरन्तर योग-निष्ठ रहकर जरायुज, अण्डज और स्वेदज आदि समस्त जीवों से मन, वाणी अथवा कर्म द्वारा कभी द्रोह न करे तथा सब प्रकार की म आसक्तियों को त्याग दे।
{874} तृप्तकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान्। विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन्॥
(म.स्मृ.-6/52) बाल, नाखून और दाढ़ी-मूंछ कटवा कर (बिल्कुल मुण्डन कराकर), भिक्षापात्र (मिट्टी का सकोरा आदि), दण्ड तथा कमण्डलु को लिये हुए सभी (किसी भी) प्राणियों 卐 को पीड़ित न करते हुए (संन्यासी) सर्वदा विचरण करे।
明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那 वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/248