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वघ-दण्ड/उग्र दण्डः सामान्यतः वर्जित
{946} असाधुश्चैव पुरुषो लभते शीलमेकदा। साधोश्चापि ह्यसाधुभ्यः शोभना जायते प्रजा॥ न मूलघातः कर्तव्यो नैष धर्मः सनातनः। अपि स्वल्पवधेनैव प्रायश्चित्तं विधीयते॥ उद्वेजनेन बन्धेन विरूपकरणेन च। वधदण्डेन ते क्लिश्या न पुरोहितसंसदि॥
____ (म.भा.12/267/11-13) दुष्ट पुरुष भी कभी साधुसंग से सुधर कर सुशील बन जाता है तथा बहुत-से दुष्ट पुरुषों की संतानें भी अच्छी निकल जाती हैं। इसलिये दुष्टों को प्राणदण्ड देकर उनका मूलोच्छेद नहीं करना चाहिये। किसी की जड़ उखाड़ना सनातन धर्म नहीं है। अपराध के ' अनुरूप साधारण दण्ड देना चाहिये, उसी से अपराधी के पापों का प्रायश्चित्त हो जाता है। अपराधी को उसका सर्वस्व छीन लेने का भय दिखाया जाय अथवा उसे कैद कर लिया है।
जाय या उसके किसी अंग को भंग करके उसे कुरूप बना दिया जाय, परंतु प्राणदण्ड देकर # # उनके कुटुम्बियों को क्लेश पहुँचाना उचित नहीं है। इसी तरह यदि वे पुरोहित ब्राह्मण की
शरण में जा चुके हों तो भी राजा उन्हें दण्ड न दे।
{947} वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद् धिग्दण्डं तदनन्तरम्। तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्॥
(म.स्मृ.-8/129) राजा गुणियों को प्रथम बार अपराध करने पर वाग्दण्ड (वाणी से डांटना आदि), उसके बाद (दूसरी बार अपराध करने पर) धिग्दण्ड (धिक्कारना आदि), तीसरी बार
आर्थिक दण्ड (जुर्माना) और इसके बाद वधदण्ड (अपराधानुसार शरीरताडन अर्थात् कोड़े * या बेंत से मारकर, या अधिक गम्भीर अपराध में ही, यदि उक्त दण्डों से न सुधर पाये तो, * अङ्गच्छेद आदि या प्राणदण्ड) से दण्डित करे।
REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENP (वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/278