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सर्वथा वृजिनं युद्धं को घ्नन्न प्रतिहन्यते । हतस्य च हृषीकेश समौ जय-पराजयौ ॥
( म.भा. 5/72/53)
युद्ध तो सर्वथा पाप रूपी ही है। जो दूसरों को मारने पर उतरे, वह भी क्या किसी से मारा नहीं जाएगा? और जो युद्ध में मारा गया, उसके लिये तो विजय हो या पराजय- दोनों समान हैं।
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अन्ततो दयितं घ्नन्ति केचिदप्यपरे जनाः । तस्यांगबलहीनस्य पुत्रान् भ्रातृनपश्यतः ॥ निर्वेदो जीविते कृष्ण सर्वतश्चोपजायते ।
( म.भा. 5/72/55-56)
जब तक युद्ध समाप्त होता है, विजयी योद्धा के अनेक प्रियजन (विपक्षी सैनिकों द्वारा ) मार डाले जाते हैं। जो विजय पाता भी है, वह भी (कुटुम्ब और धनसम्बन्धी) बल से शून्य हो जाता है। जब वह युद्ध में मारे गये अपने पुत्रों और भाईयों को नहीं देखता है, तो वह सब ओर से उदासीन व विरक्त हो जाता है; उसे अपने जीवन से भी वैराग्य हो जाता है।
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ये ह्येव धीरा ह्रीमन्त आर्याः करुणवेदिनः ॥ त एव युद्धे हन्यन्ते यवीयान् मुच्यते जनः । हत्वाऽप्यनुशयो नित्यं परानपि जनार्दन ॥
( म.भा. 5/72/56-57)
जो लोग धीर-वीर, लज्जाशील, श्रेष्ठ और दयालु हैं, वे ही प्रायः युद्ध में मारे जाते हैं और अधम श्रेणी के मनुष्य जीवित बच जाते हैं। शत्रुओं को मारने पर भी उनके लिये सदा मन में पश्चात्ताप बना रहता है।
出
अहिंसा कोश / 287]