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अहिंसक दृष्टि से सम्पन्न युद्ध: धर्मयुद्ध
[ अहिंसा धर्म के व्याख्याकारों ने छल, कपट, अमर्यादित क्रूरता आदि धर्म-विरुद्ध उपायों से बचते हुए, अहिंसक दृष्टि के साथ, एक सीमित मर्यादा में ही युद्ध करने की अनुज्ञा दी है। उक्त धर्मयुद्ध के मूल में मुख्य + रूप से पांच अहिंसात्मक भावनाएं निहित है- (1) हिंसा कम से कम हो तथा निरर्थक हिंसा से बचा जाए, (2)
छल, कपट आदि का प्रयोग न हो तथा नियम-विरुद्ध प्रहार न हो, (3) निहत्थे, युद्धविमुख, युद्ध में सहायता कार्य करने वाले, तथा अपने से निर्बल साधन वाले व्यक्ति पर प्रहार न करना, (4) परम्परा से हट कर असाधारण या अत्यधिक उग्र अस्त्रों (परमाणु अस्त्रों आदि) के प्रयोग से बचना तथा (5) खेल-भावना के साथ, दिन के युद्ध की समाप्ति के बाद, पुनः परस्पर प्रेम से रहना। इसी धर्म-युद्ध से सम्बन्धित नियम महाभारत में निर्दिष्ट हैं, जिन्हें यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-]
{996} ततस्ते समयं चक्रुः कुरुपाण्डवसोमकाः॥ धर्मान् संस्थापयामासुर्युद्धानां भरतर्षभ।
. (म.भा. 6/1/26-27) कौरव, पाण्डव तथा सोमकों ने परस्पर मिलकर युद्ध के सम्बन्ध में कुछ नियम बनाये। उन्होंने युद्ध-धर्म की मर्यादा स्थापित की।
1997 नैवासनद्धकवचो योद्धव्यः क्षत्रियो रणे। एक एकेन वाच्यश्च विसृजेति क्षिपामि च॥ से चेत् सन्नद्ध आगच्छेत् सन्नद्धव्यं ततो भवेत्। सचेत् ससैन्य आगच्छेत् ससैन्यस्तमथाह्वयेत्॥ स चेन्निकृत्या युद्धयेत निकृत्या प्रतियोधयेत्। अथ चेद् धर्मतो युद्धयेद् धर्मेणैव निवारयेत्॥
(म.भा. 12/95/7-9) जो कवच बांधे हुए न हो, उस क्षत्रिय के साथ रणभूमि में युद्ध नहीं करना चाहिये। एक योद्धा दूसरे एकाकी योद्धा से ही कहे-तुम मुझ पर शस्त्र छोड़ो- मैं भी तुम पर प्रहार 3 करता हूं। यदि वह कवच बांधकर सामने आए तो स्वयं भी कवच धारण कर ले। यदि ॐ विपक्षी सेना के साथ आवे तो स्वयं भी सेना के साथ उस शत्रु को ललकारे। यदि वह छल * से युद्ध करे तो स्वयं भी उसी रीति से उसका सामना करे और यदि वह धर्म से युद्ध आरम्भ ॥ करे तो धर्म से ही उसका सामना करना चाहिये। %% %% % % %%% %%% %%%% %%% %%% % % %%% %%%% *
अहिंसा कोश/293]
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