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{1001} निवृत्ते विहिते युद्धे, स्यात् प्रीतिर्नः परस्परम्॥ यथापरं यथायोगं, न च स्यात् कस्यचित् पुनः।
(म.भा. 6/1/27-28) वे नियम इस प्रकार हैं-चालू युद्ध के बंद होने पर, संध्या-काल में हम सब लोगों में परस्पर प्रेम पूर्ववत् बना रहे। उस समय पुनः किसी का किसी के साथ शत्रुतापूर्ण अयोग्य मैं बर्ताव नहीं होना चाहिये।
{1002} नाश्वेन रथिनं यायादुदियाद् रथिनं रथी। व्यसने न प्रहर्तव्यं न भीताय जिताय च॥
(म.भा. 12/95/10) ___घोड़े के द्वारा रथी पर आक्रमण न करे। रथी का सामना रथी को ही करना चाहिये। # यदि शत्रु किसी संकट में पड़ जाय तो उस पर प्रहार न करे।रे और पराजित हुए (अपनी ॥ * हार मान चुके) शत्रु पर भी कभी प्रहार नहीं करना चाहिये।
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{1003} न सूतेषु न धुर्येषु, न च शस्त्रोपनायिषु। न भेरीशङ्खवादेषु, प्रहर्तव्यं कथंचन॥
(म.भा. 6/1/32) घोड़ों की सेवा के लिए नियुक्त हुए सूतों, बोझ ढोने वालों, शस्त्र पहुंचाने वालों तथा भेरी व शङ्ख बजाने वालों पर भी कोई किसी प्रकार भी प्रहार न करे।
{1004} नायुधव्यसनप्राप्तं नातं नातिपरिक्षतम्। न भीतं न परावृत्तं सतां धर्मानुस्मरन्॥
(म.स्मृ.-7/93) अपने शस्त्र-अस्त्र से टूटने आदि से दुःखी, पुत्र आदि के शोक से आर्त, बहुत घायल, डरे हुए और युद्ध से विमुख योद्धा को, सज्जन क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करते हुए 4 (राजा या कोई भी योद्धा) न मारे। % %%%%%%%%%%%% %%%%%% % %%% %、
अहिंसा कोश/295]