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शुद्धात्मानः शुद्धवृत्ता राजन् स्वर्गपुरस्कृताः । आर्यं युद्धमकुर्वन्त परस्परजिगीषवः ॥ शुक्लाभिजनकर्माणो मतिमन्तो जनाधिप । धर्मयुद्धमयुध्यन्त प्रेप्सन्तो गतिमुत्तमाम् ॥ न तत्रासीदधर्मिष्ठमशस्तं युद्धमेव च। नात्र कर्णी न नालीको न लिप्तो न च बास्तिकः ॥ न सूची कपिशो नैव न गवास्थिर्गजास्थिजः । इषुरासीन्न संविष्टो न पूतिर्न च जिह्मगः ॥ ऋजून्येव विशुद्धानि सर्वे शस्त्राण्यधारयन् । सुयुद्धेन पराँल्लोकानीप्सन्तः कीर्तिमेव च॥
(म.भा. 7 / 189/9-13 ) (दिव्यदृष्टि संजय द्वारा कौरव - पाण्डवों के मध्य हो रहे धर्म - युद्ध (आर्ययुद्ध) का धृतराष्ट्र के समक्ष वर्णन-) सब योद्धाओं के हृदय शुद्ध और आचार-व्यवहार निर्मल थे। वे सभी स्वर्ग की प्राप्ति रूप लक्ष्य को अपने सामने रखे हुए थे; अतः परस्पर विजय की अभिलाषा से वे आर्यजनोचित युद्ध (धर्म युद्ध) करने लगे। जनेश्वर ! उन सब के वंश शुद्ध और कर्म निष्कलङ्क थे; अतः वे बुद्धिमान् योद्धा उत्तम गति पाने की इच्छा से धर्मयुद्ध में तत्पर हो गये। वहाँ अधर्मपूर्ण और निन्दनीय युद्ध नहीं हो रहा था, उसमें कर्णी, नालीक, विष लगाये हुए बाण और बस्तिक नामक अस्त्र का प्रयोग नहीं हुआ था। ( टिप्पण - कर्णी, नालीक व बस्तिक आदि अस्त्र अपेक्षाकृत अधिक तीक्ष्ण होने से युद्ध में वर्जित हैं)। उस युद्ध में न सूची, न कपिश, न गाय की हड्डी का बना हुआ, न हाथी की हड्डी का बना हुआ, न दो फलों या काटों वाला, न दुर्गन्धयुक्त और न जिह्मग (टेढ़ा जाने वाला) बाण ही
में लाया गया था । ( टिप्पण - सूची, कपिश आदि बाण भी अधिक तीक्ष्ण होने से इनका प्रयोग धर्म-युद्ध में वर्जित है ।) वे सब योद्धा न्याययुक्त युद्ध के द्वारा उत्तम लोक और कीर्ति पाने की अभिलाषा रखकर सरल और शुद्ध (सामान्यतः उपयोग में लाये जाने वाले ) शस्त्रों ही धारण किये हुए थे ।
9595 अहिंसा कोश / 303]