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{1026} न रिपून् वै समुद्दिश्य विमुञ्चन्ति नराः शरान्। रन्ध्र एषां विशेषेण वधः काले प्रशस्यते॥
(म.भा.1/117/16) मनुष्य अपने शत्रुओं पर भी, विशेषतः जब वे संकट काल में हो, बाण नहीं छोड़ते। उपयुक्त अवसर (संग्राम आदि) में ही शत्रुओं के वध की प्रशंसा की जाती है।
{1027} पिबन्तं न च भुञ्जानमन्यकार्याकुलं न च॥ न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्।
(शु.नी.4/7/358-361) जलपानादि करते हुये, भोजन करते हुए, युद्ध के अतिरिक्त अन्य कार्मों में व्यस्त भ हुए, डरे हुए एवं युद्ध से विमुख हुए, ऐसे सैनिकों के ऊपर प्रहार नहीं करे।
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{1028} न हि प्रहर्तुमिच्छन्ति शूराः प्रद्रवतो भृशम्। तस्मात् पलायमाननां कुर्यान्नात्यनुसारणम्॥
(म.भा.12/99/14) शूरवीर जोर-जोर से भागते हुए योद्धाओं पर प्रहार करना नहीं चाहते हैं, अतः पलायन करने वाले सैनिकों का अधिक दूर तक पीछा नहीं करना चाहिये।
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कूट/तीक्ष्णतम शस्त्रास्त्रों (परमाणु-अस्त्रों) का प्रयोग युद्ध में वर्ण्य
__{10291 एतत् तपश्च पुण्यं च धर्मश्चैव सनातनः॥ चत्वारश्चाश्रमास्तस्य यो युद्धमनुपालयेत्।
(म.भा. 12/98/47-48
जो युद्ध-धर्म का निरन्तर पालन करता है, उसके लिये यही तपस्या, पुण्य, सनातनधर्म तथा चारों आश्रमों
IAAAEKापालन है।
वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/302