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संसारे दुःखदं युद्धं न कर्तव्यं विजानता ।
लोभासक्ताः प्रकुर्वन्ति संग्रामं च परस्परम् ॥
लोभ में आसक्त व्यक्ति (राष्ट्र) ही परस्पर संग्राम करते हैं । किन्तु युद्ध संसार में
दुःख ही पैदा करता है, अत: समझदार व्यक्ति (या राष्ट्र) को चाहिए कि वह युद्ध न करे
( यथाशक्ति उससे बचे ) ।
{968}
न सुखं कृतवैरस्य भवतीति विनिर्णयः । संग्रामरसिकाः शूराः प्रशंसन्ति न पण्डिताः ॥
युद्धे विजयसन्देहो निश्चयं बाणताडनम् । दैवाधीनमिदं विश्वं तथा जयपराजयौ ॥ दैवाधीनाविति ज्ञात्वा न योद्धव्यं कदाचन ।
(दे. भा. 5/11/61)
हिंसक युद्ध का भयावह परिणाम
(दे. भा. 6/6/8,10-11 )
वैर बांध कर किसी को सुख नहीं मिलता - यह निश्चित बात है। इसलिए पण्डित
एवं युद्ध-रसिक वीर भी इस (वैर भाव व युद्ध) की प्रशंसा नहीं करते। युद्ध में विजय
मिलेगी या नहीं - यह संदेह बना ही रहता है,
बाण आदि अस्त्रों के वार भी झेलने पड़ते हैं, जय व पराजय- दोनों ही भाग्य के अधीन हैं- ऐसा जान कर कभी युद्ध नहीं करना चाहिए।
{969}
को ह्यपि बहून् हन्ति नन्त्येकं बहवोऽप्युत । शूरं कापुरुषो हन्ति अयशस्वी यशस्विनम् ॥
! पुरुष यशस्वी वीर को पराजित कर देता है ।
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( म.भा. 5 / 72/51)
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युद्ध में एक योद्धा भी बहुत से सैनिकों का संहार कर डालता है तथा बहुत से योद्धा
मिलकर एक को ही मार देते हैं। कभी कायर शूरवीर को मार देता है और कभी अयशस्वी
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अहिंसा - विश्वकोश / 285]