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{982}
शेषो हि बलमासाद्य न शेषमनुशेषयेत् ॥ सर्वोच्छेदे च यतते वैरस्यान्तविधित्सया ।
( म.भा. 5/72/58-59 )
मारे जाने वाले शत्रुओं में से कोई-कोई जो बचा रह जाता है, वह शक्ति का संचय करके, विजेता के पक्ष में जो लोग बचे हैं, उनमें से किसी को जीवित नहीं छोड़ना चाहता । वह शत्रु का अन्त कर डालने की इच्छा से, विरोधी दल को सम्पूर्णरूप से ही नष्ट कर देने का प्रयत्न करता है।
{983}
अतोऽन्यथा नास्ति शान्तिर्नित्यमन्तरमन्ततः ॥ अन्तरं लिप्समानानामयं दोषों निरन्तरः ।
( म.भा. 5/72/64-65 )
(चूंकि दोनों पक्षों में से किसी पक्ष को सदा कोई न कोई छिद्र अर्थात् दूसरे के लिए प्रतिकूल अवसर मिलने की सम्भावना रहती है, इसलिये) दोनों पक्षों में से एक का सर्वथा नाश हुए बिना (दूसरे पक्ष को) पूर्णतः शान्ति नहीं प्राप्त होती है। जो लोग (शत्रु को नष्ट करने का छिद्र/अवसर ढूंढते रहते हैं, उनके सामने तो अशान्ति बने रहने का ) यह दोष निरन्तर रहता है ।
{984}
पौरुषे यो हि बलवानाधिहृदयबाधनः । तस्य त्यागेन वा शान्तिर्मरणेनापि वा भवेत् ॥ अथवा मूलघातेन द्विषतां मधुसूदन । फलनिर्वृत्तिरिद्धा स्यात् तन्नृशंसतरं भवेत् ॥
( म.भा. 5/72/65-66)
पूर्व वैर की स्मृति के कारण, मन में जो प्रबल चिन्तारूप आधि / रोग हृदय को पीड़ित करता रहता है, उसकी शान्ति तभी संभव है जब उस (वैर-भाव) को छोड़ दिया. जाय, या व्यक्ति मर जाय, या फिर अपने शत्रुओं को समूल नष्ट करना संभव हो सके और अभीष्ट फल की सिद्धि हो जाय, किन्तु यह (समूल नाश का कार्य) तो अत्यन्त क्रूरता का कार्य है।
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अहिंसा कोश / 289]