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{915} यद् घ्राणभक्षो विहितः सुरायास्तथा पशोरालभनं न हिंसा। एवं व्यवायः प्रजया न रत्या इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम्॥ ये त्वनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धा सदभिमानिनः। पशून्दुह्यन्ति विस्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान्॥
(भा.पु. 11/5/13-14) सौत्रामणि यज्ञ में मद्य का केवल सूंघना ही विहित माना गया है, पीना नहीं। यज्ञादि 3 में पशु के केवल आलभन अर्थात् स्पर्श करने का विधान है, हिंसा करने का नहीं। और 4
केवल सन्तानोत्पत्ति के लिये ही स्त्री-प्रसंग में प्रवृत्त होने को कहा गया है, विषय-सुख के लिए नहीं। इस विशुद्ध धर्म को वे मूर्ख लोग नहीं जान पाते । इस तात्पर्य को भली भांति न * जानने वाले तथा अत्यन्त गर्वीले और अपने में श्रेष्ठपन का अभिमान रखने वाले जो प्राणी हैं
तथा जो किसी लाभ पर विश्वास करके पशुओं से द्रोह किया करते हैं, उनके द्वारा मारे हुए ॐ पशु मर कर उन्हीं को खा जाते हैं।
___{916} सर्वकर्मष्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत्। कामकाराद् विहिंसन्ति बहिर्वेद्यां पशून्नराः॥
(म.भा. 12/265/5) धर्मात्मा मनु ने सभी (धार्मिक) कार्यों में अहिंसा का ही प्रतिपादन किया है। यज्ञ है की वेदी पर पशुओं का जो बलि-दान किया जाता है, वह लोगों की मनमानी/स्वच्छन्दता के # कारण ही होता है।
{917} एतेऽपि ये याज्ञिका यज्ञकर्मणि पशून् व्यापादयन्ति, ते मूर्खाः परमार्थं श्रुतेः न # जानन्ति। तत्र किल एतदुक्तम्-'अजैःयष्टव्यम्',अजा-व्रीहयः तावत् सप्तवार्षिकाः कथ्यन्तेः, पुनः पशुविशेषाः।
(पं.त. 3/106 के बाद गद्य) जो वैदिक लोग यज्ञ कर्मों में पशुओं को मारते हैं वे अत्यन्त मूर्ख हैं, क्योंकि वे * श्रुति का वास्तविक अर्थ नहीं समझते। श्रुति में वहां केवल यह कहा गया है कि 'अजों से + यज्ञ करना चाहिए'। (वस्तुतः) सात वर्ष के पुराने यव 'अज' कहलाते हैं न कि 'पशु-ई
विशेष' छाग। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES
अहिंसा कोश/261]
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