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{913} ये त्विह वै पुरुषमेधेन पुरुषाः यजन्ते याच स्त्रियो नृपशूखादन्ति, तांश्च ते ॐ पशव इव निहता यमसदने यातयन्तो रक्षोगणाः सौनिका इव स्वधितिनावदायासृक् ॐ पिबन्ति नृत्यन्ति च गायन्ति च हृष्यमाणा यथेह पुरुषादाः।येत्विह वा अनागसोऽरण्ये
ग्रामे वा वैश्रम्भकैरुपसृतानुपविश्रम्भय्य जिजीविशूछूलसूत्रादिषूपप्रोतान्क्रीडनकतया ॥ यातयन्ति तेऽपिच प्रेत्य यमयातनासु शूलादिषु प्रोतात्मानः क्षुतृड्भ्यां चाभिहताः कङ्कवटादिभिश्चेतस्ततस्तिग्मतुण्डैराहन्यमाना आत्मशमलं स्मरन्ति॥
(भा.पु. 5/26/31-32) इस लोक में जो पुरुष नरमेधादि यज्ञ के द्वारा यजन करते तथा जो स्त्रियां पुरुषपशुओं को खाती हैं, उन्हें पशु के समान वे मारे हुए पुरुष यमलोक में राक्षस बन कर विविध प्रकार # यातनाएं देते हैं और व्याधों की तरह अपने शस्त्रों से काट-काटकर उनका लोहू पीते हैं। जैसे
वे मनुष्यभोजी पुरुष इस लोक में उसका मांस खा कर आनन्दित होते थे, वैसे ही वे रक्त # पीते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं। जो पुरुष इस लोक में वन या गांव के निरपराध . जीवों को, जो अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं, अनेक उपायों से विश्वास दिला तथा अपने ॐ पास आने पर धोखे से पकड़ कर कांटे या सूत्रादि में पिरो कर खेल करते हुए सताते हैं, वे
भी मरने पर यमयातनाओं के समय शूल से बींधे जाते हैं। तब भूख-प्यास से व्याकुल तथा : कंक, वट आदि तीखी चोंच के पक्षियों द्वारा नोचे जाने पर, वे अपने पुराने पापों का स्मरण करते हैं।
{914} ते मे मंतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः। हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना॥ हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया। यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन्खलाः॥
(भा.पु. 11/21/29-30) __ (श्रीकृष्ण का उद्धव को कथन-) विषय-आसक्त व्यक्ति मेरे गूढ़ अभिप्राय को ॐ नहीं जानते कि वेदों में हिंसा की प्रेरणा नहीं की गयी है, बल्कि यदि किसी की हिंसा में
विशेष प्रवृत्ति हो तो वह यज्ञ में केवल पशु-आलभन (स्पर्शमात्र) भर करे, हिंसा न करेहै ऐसा नियम किया गया है। हिंसा में रत वे दुष्ट अपने सुख की इच्छा से पशुओं की बलि
देकर, देवता, पितर तथा भूतपतियों का यज्ञों द्वारा यजन किया करते हैं।
[वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/260