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{875} प्राणिहिंसानिवृत्तश्च मौनी स्यात् सर्वनिःस्पृहः।
(प.पु. 3/59/19) भिक्षु/संन्यासी को चाहिए कि वह प्राणियों की हिंसा से सर्वथा निवृत्त रहे, मौन रखे और सभी में नि:स्पृह रहे।
{876}
नाश्रमः कारणं धर्मे क्रियमाणो भवेद्धि सः। अतो यदात्मनोऽपथ्यं परेषां न तदाचरेत्॥
(या. स्मृ., 3/4/65) (आत्मोपासन रूप) धर्म (के आचरण) में आश्रम (का प्रतीक दण्ड-कमण्डलु ॐ आदि) कारण नहीं है, अपितु वह धर्म करने (आचरण) से होता है। इसलिये जो अपने
लिये अपथ्य (अहितकारी) है, उसे दूसरे के लिये नहीं करना चाहिये।
{877} अहिंसयेन्द्रियास वैदिकैश्चैव कर्मभिः। तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम्॥
(म.स्मृ.-6/75) अहिंसा, विषयों की अनासक्ति, वेदप्रतिपादित कर्म और कठिन तपश्चरणों से (संन्यासी) इस लोक में उस पद (ब्रह्मपद) को साध लेते हैं ( इन कर्मों के आचरण से ब्रह्म-प्राप्ति की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं)।
18781 संरक्षणार्थं जन्तूनां रात्रावहनि वा सदा। शरीरस्यात्यये चैव समीक्ष्य वसुधां चरेत्॥
(म.स्मृ.-6/68) (संन्यासी)शरीर के पीड़ित होने पर भी, रात में या दिन में, सब जीवों की रक्षा के लिए सर्वदा भूमि को देखकर चले।
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अहिंसा कोश/249]