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1896} अहिंसा वैदिकं कर्म ध्यानमिन्द्रियसंयमः। तपोऽथ गुरुशुश्रूषा किं श्रेयः पुरुष प्रति॥
_ (म.भा. 13/113/1) (युधिष्ठिर का बृहस्पति से प्रश्न-)अहिंसा, वेदोक्त कर्म, ध्यान, इन्द्रिय-संयम, तपस्या है * और गुरुशुश्रूषा-इन में से कौन-सा कर्म मनुष्य का (विशेष) कल्याण कर सकता है?
{897} वीतरागा विमुच्यन्ते पुरुषाः कर्मबन्धनैः। कर्मणा मनसा वाचा ये न हिंसन्ति किंचन॥
. (म.भा. 13/144/7) मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी की हिंसा नहीं करने वाले वीतराग (राग आदि मनोविकारों से रहित) पुरुष ही कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।
{898}
प्राणातिपाताद् विरताः शीलवन्तो दयान्विताः॥ तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः।
(म.भा. 13/144/8-9) जो किसी के भी प्राणों की हत्या से दूर रहते हैं तथा जो सुशील और दयालु हैं,वे कर्मों के बन्धनों में नहीं पड़ते। जिनके लिये शत्रु और प्रिय मित्र दोनों समान हैं, वे जितेन्द्रिय ॐ पुरुष ही कर्मों के बन्धन से मुक्त होते हैं।
अभयदाता एवं प्राणि-मित्रः ब्रह्मलोक का अधिकारी
{899) अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्। सर्वभूतसुखो मैत्रः सर्वेन्द्रिययतो मुनिः॥
(म.भा.13/अनुगीता पर्व/46/18) (वानप्रस्थ की अवधि पूरी करके) सम्पूर्ण भूतों को अभय-दान देकर कर्मम त्यागरूप संन्यास-धर्म का पालन करे। सब प्राणियों के सुख में सुख माने। सब के साथ # मित्रता रखे। समस्त इन्द्रियों का संयम और मुनि-वृत्ति का पालन करे। NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN
अहिंसा कोश/255]