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{900} यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात्। तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः॥
(म.स्मृ.-6/39) जो सब (स्थावर तथा जङ्गम) प्राणियों के लिये अभय देकर गृह से संन्यास ले म लेता है, उस ब्रह्मज्ञानी के तेजोमय लोक (ब्रह्मलोक आदि) होते हैं अर्थात् वह उन लोकों 卐 को प्राप्त करता है।
{901} न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान बिभ्यति। कामद्वेषौ च जयति तदाऽऽत्मानं च पश्यति॥
(म.भा.12/21/4) जब मनुष्य किसी से भयभीत नहीं होता और उससे भी जब कोई प्राणी भयभीत # नहीं होता, तब काम व द्वेष का विजेता वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार कर लेता है।
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अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा यश्चरते मुनिः। न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित्॥
(म.भा. 12/192/4; ना. पु. 1/43/125) जो मुनि (संन्यासी) सब प्राणियों को अभय-दान देकर विचरता है, उसको भी सभी प्राणियों की ओर से कहीं भी भय प्राप्त नहीं होता।
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परिव्राजकः सर्वभूताभयदक्षिणां दत्वा प्रतिष्ठे अथाप्युदाहरन्तिःअभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा चरति यो मुनिः । तस्यापि सर्वभूतेभ्यो न भयं. जातु विद्यते।
(व. स्मृ., 244-246) परिव्राजक समस्त प्राणियों को अभयदान की दक्षिणा देकर प्रतिष्ठित होता है। कहा + भी गया हैं:-जो मननशील मुनि समस्त प्राणियों को अभय देकर विचरण करता है, उसको ॐ भी समस्त प्राणियों से कभी किसी प्रकार भय नहीं होता है।
NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENA वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/256