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अहिंसाः क्रियायोग व ज्ञानयोग में
{890) अहिंसा सत्यमक्रोधो ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ। अनीता॑ च दया चैव योगयोरुभयोः समाः॥
__ (ना. पु. 1/33/35) * अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना (अर्थात् क्षमा), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ईर्ष्या न करना, दया- ये (क्रियायोग व ज्ञानयोग- इन) दोनों योग-साधनाओं में समान रूप से पालनीय हैं।
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{891} कर्मणा मनसा वाचा सर्वलोकहिते रतः। समर्चयति देवेशं क्रियायोगः स उच्यते॥
(ना. पु. 1/33/42) . मन, वचन व कर्म से सभी लोगों के हित-साधन में प्रवृत्त रहते हुए ईश्वर की आराधना-अर्चना करना- यह 'क्रियायोग' कहा जाता है।
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अहिंसाः और ध्यान-यज्ञ
{892} ध्यानयज्ञः परः शुद्धः सर्वदोषविवर्जितः। तेनेष्ट्वा मुक्तिमाजोति बाह्यशुद्धैश्च नाध्वरैः॥
(अपु. 374/13-14) हिंसादोषविमुक्तित्वाद्विशुद्धिश्चित्तसाधनः॥ ध्यानयज्ञः परस्तस्मादपवर्गफलप्रदः।
(अ.पु. 374/14-15) ध्यानयज्ञ अत्यन्त शुद्ध और सभी दोषों से रहित है। इसलिए ध्यानयज्ञ से ही मोक्ष प्राप्त होता है, (केवल) बाह्य शुद्ध यज्ञों से नहीं।
हिंसा और दोष से विमुक्त होने के बाद जो चित्त की विशुद्धि होती है, उस के बाद ही 'ध्यान यज्ञ' पूर्ण होता है जो मोक्ष-फल को देने वाला है। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN
अहिंसा कोश/253]