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दानवद्भिः कृतः पन्था येन यान्ति मनीषिणः । ते हि प्राणस्य दातारस्तेभ्यो धर्मः सनातनः ॥
(म.भा. 13/112/24) दाता पुरुषों ने जिस मार्ग को चालू किया है, उसी से मनीषी पुरुष चलते हैं । अन्नदान करने वाले मनुष्य वास्तव में प्राणदान करने वाले हैं। उन्हीं लोगों से सनातन धर्म की वृद्धि होती है।
[ टिप्पणी: अन्न-दान की महिमा हेतु द्रष्टव्यः ब्र.पु. 3/16/52-55; ग. पु. 1 / 213 / 19; ब्रह्म 109/10-32; अ.पु. 211/44-46; प.पु.; 2/13/10-18, 2/69/17-25, 5/119/40-41, प. पु. 6 (उत्तर)/118/14, 7 (क्रिया) /20/ 52-56; वि.ध.पु. 3/315/ आदि-आदि ]
{789}
प्राणा वै प्राणिनामेते प्रोच्यन्ते भरतर्षभ । तस्माद् ददाति यो धेनुं प्राणानेष प्रयच्छति ॥
( म.भा. 13/66/49)
गौएं प्राणियों ( को दूध पिलाकर पालने के कारण उन) के प्राण कहलाती हैं, इसलिये जो दूध देने वाली गौ का दान करता है, वह मानों प्राण- दान देता है।
{790}
अन्ने दत्ते नरेणेह प्राणा दत्ता भवन्त्युत ॥ प्राणदानाद्धि परमं न दानमिह विद्यते ।
( म.भा. 13/67/ 8-9 ) जिस मनुष्य ने यहाँ किसी को अन्न दिया, उसने मानों प्राण दे दिये और प्राणदान से बढ़कर इस संसार में दूसरा कोई दान नहीं है।
{791}
व्याधितस्यौषधं दत्वा प्राणदानफलं लभेत् । रोगार्तं परिचर्याथ प्राणदानफलं लभेत् ॥
(वि. ध. पु. 3 / 302/29)
रोग से पीड़ित व्यक्ति को औषध देने से प्राण-दान का फल प्राप्त होता है। इसी तरह, रोगी की परिचर्या (इलाज,
सेवा
- शुश्रूषा) करने
भी प्राण- दान का फल प्राप्त होता है।
原
版
अहिंसा कोश / 221]