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795) पानीयं परमं दानं दानानां मनुरब्रवीत्। तस्मात् कूपांश्च वापीश्च तडागानि च खानयेत्॥ अंधैं पापस्य हरति पुरुषस्येह कर्मणः। कूपः प्रवृत्तपानीयः सुप्रवृत्तश्च नित्यशः॥
___(म.भा. 13/65/3-4; प.पु.उत्तर (6)/27/1-2) मनुजी ने कहा है कि जल का दान सब दानों से बढ़ कर है, इसलिये कुएं, बावड़ी + और पोखरे खोदवाने चाहिएं। जिसके खोदवाये हुए कुएँ में अच्छी तरह पानी निकल कर , # यहाँ सदा सब लोगों के उपयोग में आता है, वह कार्य उस मनुष्य के पापकर्म का आधा भाग है हर लेता है।
{796} गवादि पिबते यस्मात्तस्मात्कर्तुर्न पातकम्। तोयदानात्सर्वदानफलं प्राप्य दिवं व्रजेत्॥
(अ.पु. 64/44) जलाशय के निर्माण करने से गौ आदि प्राणी जल पीकर तृप्त होते हैं। इसलिए जलाशय-निर्माता को कोई पाप नहीं लगता (अर्थात् तालाब आदि बनाने में जो कुछ भी ॐ जीवहिंसा हो जाती है, उसके पाप से मुक्त होता है)। वह जलदान से सब दानों के फल को प्राप्त करता है तथा स्वर्ग का अधिकारी होता है।
{7972 सर्वं तारयते वंशं यस्य खाते जलाशये। गावः पिबन्ति विप्राश्च साधवश्च नराः सदा॥ निदाघकाले पानीयं यस्य तिष्ठत्यवारितम्। स दुर्ग विषमं कृत्स्नं न कदाचिदवाप्नुते॥
(म.भा. 13/65/5-6; प.पु.उत्तर (6)/27/3-4) जिसके खोदवाये हुए जलाशय गौ, ब्राह्मण तथा श्रेष्ठ पुरुष सदा जल पीते हैं, वह जलाशय उस मनुष्य के समूचे कुल का उद्धार कर देता है। जिसके बनवाये हुए तालाब
में गरमी के दिनों में भी पानी मौजूद रहता है, कभी घटता नहीं है, वह पुरुष कभी अत्यन्त भविषम संकट में नहीं पड़ता।
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अहिंसा कोश/m3]