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{819} तेषां लिङ्गानि वक्ष्यामि येषां समुदयो दमः। अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः श्रद्दधानता॥ अक्रोध आर्जवं नित्यं नातिवादोऽभिमानिता। गुरुपूजाऽनसूया च दया भूतेष्वपैशुनम्॥ जनवादमृषावादस्तुतिनिन्दाविवर्जनम् । साधुकामश्च स्पृहयेन्नायतिं प्रत्ययेषु च॥
(म.भा.12/220/9-11) उन लक्षणों का वर्णन किया जा रहा है, जिनकी उत्पत्ति में 'दम' ही कारण है। कृपणता का अभाव, उत्तेजना का न होना, संतोष, श्रद्धा, क्रोध का न आना, नित्य सरलता, अधिक बकवाद न करना, समस्त जीवों पर दया करना, किसी की चुगळी न करना, लोकापवाद, असत्यभाषण तथा निन्दा-स्तुति आदि को त्याग देना, सत्पुरुषों के संग की इच्छा तथा भविष्य में आने वाले सुख की स्पृहा और दुःख की चिन्ता न करना।
{820) अभयं यस्य भूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः। नमस्यः सर्वभूतानां दान्तो भवति बुद्धिमान्॥
(म.भा.12/220/15) जो समस्त प्राणियों से निर्भय है तथा जिससे सम्पूर्ण प्राणी निर्भय हो गये हैं, वह ॐ दमनशील (इन्द्रियजयी) एवं बुद्धिमान् पुरुष सब जीवों के लिये वन्दनीय होता है।
अहिंसा और तप धर्म
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[शास्त्रों में तप को भी एक विशिष्ट धर्म माना गया है। तप के तीन भेद माने गए हैं- शारीरिक, वाचिक, मानसिक। ये तीनों ही तप एक प्रकार से अहिंसक आचरण की साधना ही हैं। इस तथ्य के पोषक कुछ शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं-]
{821} देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्चते॥
(म.भा. 6/41/14, गीता 17/14) देवता, ब्राह्मण, गुरु व ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसाये सब शरीर-सम्बन्धी तप के अन्तर्गत हैं। 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男
अहिंसा कोश/231]