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{6} अढ़ियाः वर्णाश्रम-धर्म एवं अध्यात्मयोग की अंग
[शास्त्रों में वर्णों व आश्रमों से सम्बन्धित सामान्य व विशेष धर्मों का निरूपण किया गया है। उनमें अहिंसा या उसके अभिन्न अंगों-दया, करुणा, प्राणि-रक्षा को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है, और क्रूरता व हिंसा के कार्यों का निषेध भी किया गया है। गृहस्थ जीवन हो या आध्यात्मिक साधक का जीवन, दोनों की चर्याओं में, व्यक्ति की भूमिका के अनुरूप, अहिंसा का मुखरित होना अपेक्षित माना गया है। इसीलिए महाभारत (12/191/15) तथा नारदीय पुराण के (1/43/116) में अहिंसा को सभी आश्रमों के लिए आचरणीय बताते हुए कहा गया है- 'अहिंसा सत्यमक्रोधः सर्वाश्रमगतं तपः'। इस सन्दर्भ से जुड़े कुछ अन्य उपयोगी व महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं।]
अहिंसा/ अहिंसक आचरण सभी वर्गों के लिए
{825} दया समस्तभूतेषु तितिक्षा नातिमानिता। सत्यं शौचमनायासो मङ्गलं प्रियवादिता॥ मैत्र्यस्पृहा तथा तद्वदकार्पण्यं नरेश्वर। अनसूया च सामान्यवर्णानां कथिता गुणाः।।
(वि.पु. 3/8/36-37; ब्रह्म 114/16-17) समस्त प्राणियों पर दया, सहन-शीलता, अभिमान-हीनता, सत्य, शौच, अधिक परिश्रम न करना, मङ्गल-आचरण, प्रियवादिता, मैत्री, निष्कामता, अकृपणता और किसी के ' दोष न देखना-ये समस्त वर्णों के सामान्य गुण हैं।
{826} अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता। भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः॥
(भा.पु. 11/17/21) अहिंसा, अस्तेय, काम-क्रोध व लोभ से रहित होना और प्राणियों की प्रिय व क परोपकारिणी चेष्टा में तत्पर रहना-ये सभी वर्गों के साधारण धर्म हैं।
अहिंसा कोश/233]