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दया-भाव की अभिव्यक्ति: गृहस्थ के भूत-यज्ञ में
[भूत-यज्ञ के माध्यम से गृहस्थ तुच्छ, उपेक्षित जीव-जन्तुओं के प्रति तथा परिवार व समाज के दीन व एवं रोगी व्यक्तियों के प्रति अपनी दया भावना को अभिव्यक्त करता है। इस सम्बन्ध में कुछ विशिष्ट उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं-]
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{858} नात्मार्थे पाचयेदन्नम्॥ (प.पु. 1/15/302; म.भा.12/243/5; ग.पु. 1/96/15 में
आंशिक परिवर्तन के साथ) गृहस्थ केवल अपने ही भोजन के लिये रसोई न बनावे (अपितु अन्य प्राणियों की # भूख मिटाने के उद्देश्य से बनावे) ।
{859} येषां न माता न पिता न बन्धु वान्नसिद्धिर्न तथाऽन्नमस्ति। तत्तृप्तयेऽन्नं भुवि दत्तमेतत् ते यान्तु तृप्तिं मुदिता भवन्तु॥ भूतानि सर्वाणि तथानमेतदहं च विष्णुर्न ततोऽन्यदस्ति। तस्मादहं भूतनिकायभूतमन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम्॥
(वि.पु. 3/11/53-54) [अन्नदान करते समय गृहस्थ द्वारा अभिव्यक्त भाव-] सम्पूर्ण प्राणी, यह अन्न और मैं-सभी विष्णु हैं, क्योंकि उनसे भिन्न और कुछ है ही नहीं। अतः मैं समस्त भूतों का शरीर रूप यह अन्न उनके पोषण के लिये दान करता हूँ।
{860} बालस्ववासिनीवृद्धगर्भिण्यातुरकन्यकाः । संभोग्यातिथिभृत्यांश्च दम्पत्योः शेषभोजनम्॥
(या. स्मृ., 1/5/105; ग.पु. 1/96/15-16
में आंशिक परिवर्तन के साथ) बालक, सुवासिनी (पिता के घर में रहने वाली) विवाहिता स्त्री, वृद्ध, गर्भिणी व 卐 रोगी कन्या, अतिथि और भृत्य-इन सब को भोजन बांट कर (देकर) जो शेष बचे, उसे # गृहस्थ पति-पत्नी खायें।
EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENP विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/244