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{822}
तपो यज्ञादपि श्रेष्ठमित्येषा परमा श्रुतिः। अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा। एतत् तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम्॥
(म.भा.12/79/17-18) __यज्ञ की अपेक्षा भी तप श्रेष्ठ है, यह वेद का परम उत्तम वचन है। किसी भी प्राणी है की हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरता को त्याग देना, मन और इन्द्रियों को संयम में रखना है # तथा सब के प्रति दयाभाव बनाये रखना- इन्हीं को धीर पुरुषों ने तप माना है। केवल शरीर
को सुखाना ही तप नहीं है।
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सोपधं निकृतिः स्तेयं परीवादो ह्यसूयिता। परोपघातो हिंसा च पैशुन्यमनृतं तथा॥ एतानासेवते यस्तु तपस्तस्य प्रहीयते। यस्त्वेतान् नाचरेद् विद्वांस्तपस्तस्य प्रवर्धते॥
(म.भा. 12/192/17-18) ___ कपट, शठता, चोरी, पर-निन्दा, दूसरों के दोष देखना, दूसरों को हानि पहुंचाना, प्राणी-हिंसा, चुगली खाना और झूठ बोलना- इन दुर्गुणों का जो सेवन करता है,उसकी तपस्या क्षीण होती है। किन्तु जो विद्वान इन दोषों को कभी आचरण में नहीं लाता, उसकी तपस्या निरन्तर बढ़ती रहती है।
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{824} मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत् तपो मानसमुच्यते॥
(म.भा. 6/41/16, गीता 17/16) ___ मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, मौन रहना, मन का निग्रह और अन्त:करण के भावों की भलीभांति पवित्रता-ये सब मानसिक तप कहे जाते हैं।
विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/232