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तस्माद् प्राणभृतः सर्वान्, न हिंस्याद् ब्राह्मणः क्वचित् । ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः ॥ वेदवेदाङ्गविन्नाम सर्वभूताभयप्रदः। अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम् ॥ ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणाऽपि च ।
(म.भा. 1/11/14 - 16) ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में से किसी की भी कभी व कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। ब्राह्मण वेद व वेदाङ्गों का ज्ञाता होने के साथ-साथ सभी प्राणियों को अभय देने वाला होता है । अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदों का स्वाध्याय - ये निश्चय ही ब्राह्मण के उत्तम धर्म हैं।
{835}
यज्ञश्च परमो धर्मस्तथाऽऽहिंसा च देहिषु । अपूर्वभोजनं धर्मो विघसाशित्वमेव च ॥ भुक्ते परिजने पश्चात् भोजनं धर्म उच्यते । ब्राह्मणस्य गृहस्थस्य श्रोत्रियस्य विशेषतः ॥
(म.भा. 13/141/41-42 )
(गृहस्थ-धर्म का निरूपण - ) घर में पहले भोजन न करना तथा विघसाशी होना
कुटुम्ब के लोगों के भोजन करने के बाद ही अवशिष्ट अन्न का भोजन करना - यह भी उसका
धर्म है। जब कुटुम्बी जन भोजन कर लें, उसके पश्चात् स्वयं भोजन करना - यह गृहस्थ
ब्राह्मण का, विशेषतः श्रोत्रिय (वेदाभ्यासी) का, मुख्य धर्म बताया गया है।
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शान्ता दान्ताः श्रुतिपूर्णकर्णा जितेन्द्रियाः प्राणिवधान्निवृत्ताः ।
प्रतिग्रहे संकुचिताग्रहस्तास्ते ब्राह्मणास्तारयितुं समर्थाः ॥
(व. स्मृ., 186 )
जो शान्त हों, इन्द्रिय-दमन से सम्पन्न हों, वेद के श्रवण से पूर्ण श्रोत्र वाले हों,
इन्द्रियों को जीतने वाले हों, प्राणियों की हिंसा न करने वाले हों, प्रतिग्रह (दान) में जिनके
हाथ संकुचित हों अर्थात् आगे न बढते हों - इस प्रकार के ब्राह्मण ही मनुष्यों के उद्धार करने
में समर्थ होते हैं ।
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[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 236
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