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{841} दश कामसमुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च। व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥ कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः। वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु॥ मृगयाऽक्षो दिवा स्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः। तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः॥ पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्याऽसूयाऽर्थदूषणम्। वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः॥
(म.स्मृ.-7/45-48) (क्षत्रिय राजा) कामजन्य दस तथा क्रोधजन्य आठ, कुल मिलाकर इन अठारह व्यसनों को, जो परिणाम में दुःखदायक सिद्ध होते हैं,प्रयत्नपूर्वक त्याग कर दे। क्योंकि
कामजन्य व्यसनों में आसक्त राजा अर्थ तथा धर्म से भ्रष्ट हो जाता है और क्रोधजन्य व्यसनों 4 में आसक्त राजा आत्मा से ही (अपने स्वरूप से ही) भ्रष्ट (स्वयं नष्ट) हो जाता है। मृगया है 卐 (शिकार), जुआ, दिन में सोना, पराये की निन्दा, स्त्री में अत्यासक्ति, मद (नशा-मद्यपान ॐ आदि), नाच-गाने में अत्यासक्ति और व्यर्थ (निष्प्रयोजन) भ्रमण-ये दस कामजन्य व्यसन हैं। चुगलखोरी, दुस्साहस, द्रोह, ईर्ष्या (दूसरे के गुण को न सहना), असूया (दूसरों के गुणों
में दोष बतलाना), अर्थदोष (धनापहरण या धरोहर आदि को वापस नहीं करना), कठोर प्र वचन और कठोरदण्ड-ये आठ क्रोधजन्य व्यसन हैं।
{842} दण्डस्य पातनं चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे। क्रोधजेऽपि गणे विद्यात्कष्टमेतत् त्रिकं सदा॥
(म.स्मृ.-7/51) क्रोधजन्य व्यसन-समुदाय में दण्ड-प्रयोग, कटुवचन और अर्थ-दूषण (अन्याय से दूसरे की सम्पत्ति हड़प लेना)-इन तीनों को (क्षत्रिय राजा) सर्वदा अतिकष्टदायक माने।
勇勇男明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明、 (वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/238