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{677} अमित्रमपि चेद् दीनं शरणैषिणमागतम्। व्यसने योऽनुगृह्णाति स वै पुरुषसत्तमः॥
(म.भा. 13/59/10) शत्रु भी यदि दीन होकर शरण पाने की इच्छा से घर पर आ जाय तो संकट के समय जो उस पर दया करता है, वही मनुष्यों में श्रेष्ठ है।
{678} स चेद् भयाद् वा मोहाद् वा कामाद्वापि न रक्षति। स्वया शक्त्या यथान्यायं तत् पापं लोकगर्हितम्।।
___ (वा.रामा. 5/18/29) यदि वह (श्रेष्ठ पुरुष) भय, मोह अथवा किसी कामना के कारण, न्यायानुसार ॐ यथाशक्ति उसकी रक्षा नहीं करता तो उसके उस पाप-कर्म की लोक में बड़ी निन्दा होती है।
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{679} शरणागतं यस्त्यजति, स चाण्डालोऽधमो जनः।
(वा.पु. 14/92) जो शरणागत को छोड़ देता है (उसे शरण नहीं देता), वह व्यक्ति चाण्डाल है, अधम है।
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अहिंसा और क्षमा/अक्रोध धर्मः परस्पर-सम्बद्ध
(क्षमावान् ही अहिंसक)
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क्षान्तो दान्तो जितक्रोधो धर्मभूतोऽविहिंसकः। धर्मे रतमना नित्यं नरो धर्मेण युज्यते।
(म.भा.13/142/32) क्षमाशील, जितेन्द्रिय, क्रोधविजयी, धर्मनिष्ठ व्यक्ति अहिंसक होता है और सदा ॐ धर्मपरायण मनुष्य ही धर्म के फल का भागी होता है।
वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/192