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{778}
न भोजा ममुर्न न्यर्थमीयुर्, न रिष्यन्ति न व्यथन्ते ह भोजाः। इदं यद् विश्वं भुवनं स्वश्चैतत्, सर्वं दक्षिणेभ्यो ददाति।
___ (ऋ.10/107/8) दाताओं की कभी मृत्यु नहीं होती, वे अमर है। उन्हें न कभी निकृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, न वे कभी पराजित होते हैं, और न कभी किसी तरह का कष्ट ही पाते हैं। इस पृथ्वी या स्वर्ग में जो कुछ महत्त्वपूर्ण है, वह सब दाता को 'दान' करने से मिल जाता है।
{779)
यो देवकामो न धनं रुणद्धि, समित् तं रायः सृजति स्वधाभिः।
(अ.7/50/6) जो मनुष्य अच्छे कार्य के लिए अपना धन समर्पण करता है, दान के सुप्रसंगों में अपने पास धन को रोक नहीं रखता है, उसी को अनेक धाराओं से विशेष धन प्राप्त होता है।
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{780} दानेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति, दाने सर्वं प्रतिष्ठितम्।
(म.ना.उ. 22/1) दान से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, दान में सब कुछ प्रतिष्ठित है।
{7811
दानानि हि नरं पापात् मोक्षयन्ति न संशयः॥
(म.भा. 13/59/6) दान मनुष्य को पाप से निश्चय ही मुक्त करा देते हैं।
{782} उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुः।
(ऋ.10/107/2) जो लोग दक्षिणा (दान) देते हैं, वे स्वर्ग में उच्च स्थान पाते हैं।
[दान-प्रशंसा हेतु द्रष्टव्यः ब्र.पु. 3/16 अध्याय, ग.पु. 1/213/4, प.पु. 3/57 अध्याय]
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%%% %%% %%% [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/218