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{745} अभयस्य प्रदानाद्धि नान्यद्दानं विशिष्यते। सर्वेषामेव दानानां प्राणदानं विशिष्यते॥
(वि. ध. पु. 3/302/2) - अभय-दान से बढ़ कर कोई दूसरा दान नहीं है। सभी दानों में प्राण-दान का विशिष्ट स्थान है।
{746)
चौरग्रस्तं नृपग्रस्तं रिपुग्रस्तं तु मोक्षयेत्।
(वि. ध. पु. 3/302/27) चोरों से, राजा से तथा शत्रुओं से घिरे/आक्रान्त व्यक्ति को छुड़ाना चाहिए।
{747} वधभीतस्य यः कुर्यात् परित्राणं नरोत्तमः। शक्रलोकः स्मृतस्तस्य यावदिन्द्राश्चतुर्दश॥
__ (वि. ध. पु. 3/302/11) प्राण-वध से भयभीत व्यक्ति की जो रक्षा करता है उस नर-श्रेष्ठ को 14 इन्द्रों के राज्य-काल तक इन्द्रलोक का सुख प्राप्त होता है।
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{748}
आनृशंस्येन सर्वस्य दद्यादन्नं विचक्षणः॥
(वि. ध. पु. 3/301/42) विद्वान् व्यक्ति को चाहिए कि वह सभी को अनुकम्पा/दया के साथ अन्न-दान करे।
हिंसा-पापनाशकः दान-धर्म
749} रौद्रं कर्म क्षत्रियस्य, सततं तात वर्तते। तस्य वैतानिकं कर्म दानं चैवेह पावनम्॥
(म.भा. 13/61/4) क्षत्रिय को सदा कठोर/क्रूर कर्म करने पड़ते हैं, अतः यज्ञ व दान ही उसे पवित्र है # करने वाले होते हैं।
अहिंसा कोश/209]