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{767} कृमयः किं न जीवन्ति भक्षयन्ति परस्परम्। परलोकाविरोधेन यो जीवति स जीवति।। पशवोऽपि हि जीवन्ति केवलात्मोदरम्भराः। किं कायेन सुगुप्तेन (सुपुष्टेन ) बलिना चिरजीविनः।। ग्रासादर्धमपि ग्रासमर्थिभ्यः किं न दीयते। इच्छानुरूपो विभवः कदा कस्य भविष्यति।। अदाता पुरुषस्त्यागी धनं संत्यज्य गच्छति। दातारं कृपणं मन्ये मृतोऽप्यर्थं न मुञ्चति। प्राणनाशस्तु कर्तव्यो यः कृतार्थो न सोऽमृतः। अकृतार्थस्तु यो मृत्युं प्राप्तः खरसमो हि सः।। अनाहूतेषु यद् दत्तं यच्च दत्तमयाचितम्। भविष्यति युगस्यान्तस्तस्यान्तो न भविष्यति।।
___ (वे. स्मृ., 4/22-26) केवल अपने ही आमोद में तत्पर रहने वाले पशु भी अपना पेट भर कर जीवित प्र रहते हैं। जो अपना ही उदर भरने में परायण रहे, ऐसे परिपुष्ट, बलवान् और अधिक समय
तक जीवित शरीर से क्या लाभ है? जितना भी अपने पास हो, उसमें से कुछ दान में देना ही
चाहिए। एक ग्रास में से भी आधा ग्रास याचकों को देना उचित है। यों तो अपनी इच्छा की ॐ पूर्ति करने वाला धन-वैभव किसी के पास भी नहीं होता है। अदाता और त्यागी-दोनों ही है
धन को अन्त समय में यहीं त्यागकर चले जाते हैं। जो धन का दान नहीं करता है, उसको ॐ कृपण माना जाता है, क्योंकि वह मरते समय भी धन को नहीं छोड़ता। प्राणों का नाश तो म एक दिन अवश्य ही होना है। किन्तु जो कृतार्थ (धन का उचित उपयोग कर चुका) होता
है, वह नहीं मरता है। जो अकृतार्थ है वह गधे के समान ही मृत्यु को प्राप्त होता है। बिना भ बुलाये हुए जो स्वयं ही उपस्थित हो गये हों, ऐसे व्यक्तियों को दिया हुआ दान सफल होता है
है। युग का भले ही अन्त हो जाए, किन्तु उक्त दान का अन्त कभी नहीं होता है।
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{768} दानधर्मात्परो धर्मो भूतानां नेह विद्यते।
___ (कू.पु. 2/26/55) दान-धर्म से बढ़कर कोई अन्य धर्म प्राणियों के लिए कर्तव्य नहीं है। %%%%%%%%%%%%%男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男、
अहिंसा कोश/215]