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{663} अपराधिषु सस्नेहा मृदवो मृदुवत्सलाः। आराधनसुखाश्चापि पुरुषाः स्वर्गगामिनः॥
(म.भा. 13/23/95) जो अपराधियों के प्रति भी दया करते हैं, जिनका स्वभाव मृदुल होता है, जो मृदुल स्वभाव वाले व्यक्तियों पर प्रेम रखते हैं तथा जिन्हें दूसरों की आराधना (सेवा) करने में ही सुख मिलता है, वे मनुष्य स्वर्ग लोक में जाते हैं।
दया/अनुकम्पा/करुणा से रहित व्यक्ति निन्दनीय
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{664} यो नाऽत्मना न च परेण च बन्धुवर्गे, दीने दयां न कुरुते न च मर्त्यवर्गे। किं तस्य जीवितफलं हि मनुष्यलोके, काकोऽपि जीवति चिराय बलिं च भुङ्क्ते॥
(पं.त. 1/25, ग.पु.1/115/35
___ में आंशिक परिवर्तन के साथ) जो स्वयं दूसरे प्रकार के सगे-संबन्धियों, दीनों और प्राणियों पर दया नहीं करता है, इस संसार में उसके जीवित रहने का फल ही क्या है? यों तो कौवा भी दूसरों द्वारा दी ॐ गई बलि से पेट पालता हुआ बहुत दिनों तक जीवित रहता है।
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{665} न ज्ञातिभ्यो दया यस्य शुक्लदेहोऽविकल्मषः। हिंसा सा तपसस्तस्य नानाशित्वं तपः स्मृतम्॥
(म.भा. 3/200/100) जिसने व्रत, उपवास आदि के द्वारा शरीर को तो शुद्ध कर लिया और जो नाना प्रकार के पापकर्म भी नहीं करता, किंतु जिस के मन में अपने कुटुम्बीजनों के प्रति दया नहीं आती, उसकी वह निर्दयता रूप हिंसा उसके तप का नाश करने वाली होती है; क्योंकि केवल भोजन छोड़ देने का ही नाम तपस्या नहीं है।
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% %%%% %%% विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/188