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{654} सर्वभूतानुकम्पी यः सर्वभूतार्जवव्रतः। सर्वभूतात्मभूतश्च स वै धर्मेण युज्यते॥
(म.भा. 13/142/28) जो सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करता, सब के साथ सरलता का बर्ताव करता और समस्त भूतों को आत्मभाव से देखता है, वही धर्म के फल से युक्त होता है।
{655} सर्वभूतेष्वनुक्रोशं कुर्वतस्तस्य भारत। आनृशंस्यप्रवृत्तस्य सर्वावस्थं पदं भवेत्॥
(म.भा. 12/66/19) ___ जो समस्त प्राणियों पर दया करता है और क्रूरता-रहित कर्मों में ही प्रवृत्त होता है, उसे सभी आश्रम-धर्मों के सेवन का फल प्राप्त होता है।
{656} सर्वत्र च दयावन्तः सन्तः करुणवेदिनः।। गच्छन्तीह सुसंतुष्टा धर्मपन्थानमुत्तमम्। शिष्टाचारा महात्मानो येषां धर्मः सुनिश्चितः।।
(म.भा. 3/207/94-95) जो सर्वत्र दया करते हैं, जिनके हृदय में करुणा की अनुभूति होती है, वे श्रेष्ठ पुरुष इस लोक में अत्यन्त संतुष्ट रहकर धर्म के उत्तम पथ पर चलते हैं जिन्होंने (अहिंसा) धर्म को अपनाये रखने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, वे ही महात्मा व सदाचारी हैं।
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{657} कमिकीटवयोहत्या मद्यानुगतभोजनम्। फलैधःकुसुमस्तेयम्, अधैर्यं च मलावहम्॥
___ (म.स्मृ. 11/70; अ.पु. 168/40) ' कृमि (अत्यन्त छोटे कीड़े), कीट (कृमि से कुछ बड़े कीड़े) एवं पक्षियों का वध करना, मद्य के साथ लाए गए पदार्थ का सेवन, फल-लकड़ी व फूल को चुराना और है 7 (साधारण अनिष्ट-कारक कष्टादि में भी) अधीरता-ये प्रत्येक कर्म मनुष्यों को मलिन करने
वाले हैं। 勇勇勇勇勇勇勇勇强弱弱弱弱弱弱勇勇勇勇明明明明明明明 विदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/186